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________________ तिलोयपण्णत्ती पुह पुह चारोत्ते पण्णरस हुवंति चंदवीहीओ। तब्वासो छप्पण्णा जायणया एकसविहिदा ॥ ५५५ णियणियचंदपमाणं भजिदूर्ण एकसहिस्वैहि । अडवीसेहिं गुणिदं सोहियणियउवहिदीववासम्मि॥ ५५४ ससिसंस्खापविहत्तं' सम्वन्भंतरवीहिटिदिंदूर्ण । दीवाणं उवहीणं आदिमपहजगदिविञ्चालं ॥ ५५५ उणवण्णसहस्सा णवसयणवणउदिजोयणा य तेत्तीसा । अंसा लवणसमुद्दे अभंतरवीहिजगदिविचाले ॥ दुगतिगतियतियतिणि य विच्चालं धादइम्मि दीवम्मि । णभछक्कएकभंसा तेसीदिसदेहि भवहरिदा ॥५५० ___१३३२ || पृथक् पृथक् चारक्षेत्रमें जो पन्द्रह पन्द्रह चन्द्रवीथियां होती हैं उनका विस्तार इकसठसे भाजित छप्पन योजनप्रमाण है ॥ ५५३ ॥ वीथियां १५ । विस्तार ५६ । अपने अपने चन्द्रों के प्रमागमें इकसठ रूपोंका भाग देकर अट्ठाईससे गुणा करनेपर जो संख्या प्राप्त हो उसे आने द्वीप अथवा समुद्र के विस्तारमेंसे घटाकर चन्द्रसंख्यासे विभक्त करनेपर जो लब्ध आवे उतना सर्व अभ्यन्तर वीथीमें स्थित चन्द्रोंके आदिम पथ और द्वीप अथवा समुद्रकी जगतकेि बीच अंतराल होता है ।। ५५४-५५५॥ उदाहरण-लवण समुद्रमें चन्द्र ४; ४ ६१= र ४२८ = 'र; ल. स. विस्तार २००००० = १ २ २००० ०० ; १ २ २०:००० - १२ = १ २ १९१८८८ । चन्द्र संख्या ४ = २४४ , १२ १९९८ ८८ * २४४ = ४९९९९३ ३ अभ्यन्तर वीथी और जगतीके मध्य अन्तराल । लवण समुद्रमें अभ्यन्तर वीथी और जगतीके बीच उमंचास हजार नौ सौ निन्यानवे योजन और एक योजनके इकसठ भागोंमेंसे तेतीस भागमात्र अन्तराल है ॥ ५५६ ॥ धातकीखण्ड द्वीपमें यह अन्तरालप्रमाण दो, तीन, तीन, तीन और तीन अर्थात् तेतीस हजार तीन सौ बत्तीस योजन और एक सौ तेरासीसे भाजित एक सौ साठ भाग अधिक . है ॥ ५५७ ॥ ३३३३२३४।। ६१ ६१ १द व पविहतं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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