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________________ तिलोयपणती भवनेसा णक्खत्ता पम्मरसा तीसदिमुहत्ता य । चंदम्मि एस जोगी णक्खत्ताण समक्खादं ॥ ५२॥ तिण्णेव उत्तराभो पुणन्वसू रोहिणी विसाहा य । एदे छण्णक्खत्ता पणदालमुहुत्तसंजुत्ता ॥ ५२४ दुमणिस्स एकभयणे दिवसा तेसीदिनधियएकसयं । दक्षिणायणं आदी उत्तरअयणं च अवसाणं ॥ ५२५ एकादिदुउत्तरिय दक्षिणभाउद्वियाए' पंच पदा। दोमादिदुउत्तरयं उत्तरआउट्टियाए' पंच पदा॥ ५२६ तिप्पंचदुउत्तरियं दसपदपजंतदेहि अवहरिदं । उसुपस्स य होदि पदं वोच्छं आउदिउसुपदिणं रिक्खं ॥ सजणके छगुणं भोगजुदं उसुवं उसुपउंदि तिथिमाणं । तं बारगुणं पध्वस्समविसमे किण्ई सुकं च ॥ ५२८ सत्तगुणे अगंक दसहिदसेसेसु भयणदिवसगुणं । सत्तद्विहिदे लद्धं अभिजादीदे हवे रिक्खं ॥ ५२९ अवशिष्ट पन्द्रह नक्षत्र चन्द्रमाके साथ तीस मुहूर्त तक रहते हैं । यह उन नक्षत्रोंका योग कहा गया है ॥ ५२३ ॥ म. ग. खं. २०१० - ६७ = ३० मुहूर्त । .. तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा, ये छह नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त तक चन्द्रमाके साथ संयुक्त रहते हैं ॥ ५२४ ॥ उ. ग. खं. ३१५, ३१५ / ६७ = ४५ मुहूर्त । सूर्यके एक अयनमें एक सौ तेरासी दिन होते हैं। इन अयनों से दक्षिण अयन आदिमें और उत्तर अयन अन्तमें होता है ॥ ५२५ ॥ १८३।। सूर्यके दक्षिण-अयनमें एकको आदि लेकर दो अधिक अर्थात् एक, तीन, पांच, सात और नौ, इस प्रकार आवृत्ति होती है । इस आवृत्तिमें गच्छ पांच है। इसी प्रकार दोको आदि लेकर दो अधिक अर्थात् दो, चार, छह, आठ और दश, इस प्रकार उत्तरायनमें आवृत्ति होती है। इस उत्तरावृत्तिमें भी गच्छ पांच ही रहता है ॥ ५२६ ।। [गाथा ५२७-५२९ का अर्थ अस्पष्ट है । गाथा ५२७ में विषुप अर्थात् समान दिनरात्रिवाले दिवसके पद बतलाकर आवृत्ति और विषुपके दिन और नक्षत्र बतलाने की प्रतिज्ञा की गई है । गाथा ५२८ में विषुप और आवृत्तिकी तिथि निकालने और कृष्ण व शुक्ल पक्षका निर्णय करनेका गणित दिया गया है जो त्रिलोकसार गाथा ४२८ के अनुसार इस प्रकार है- आवृत्तिकी संख्यामेंसे एक घटाकर जो बचे उसमें छहका गुणा करो। इस गुणनफलमें एक और मिलानेसे आवृत्तिकी तिथि आती है एवं तीन मिलानेसे विषुपकी । और यह तिथिसंख्या यदि विषम हो तो कृष्ण पक्ष जानना चाहिये और सम हो तो शुक्ल पक्ष । गाथा ५२९ में नक्षत्र निकालनेकी प्रक्रिया बतलाई गई है जो त्रिलोकसार गा. ४२९-१३० से भिन्न जाच पड़ती है, किन्तु अस्पष्ट है।] १६ आउडिदाए, व आठदिदाए. २ द व तिप्पंचच उसरियं ३ द उसुदं. ४ व किराह . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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