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________________ ७३६ ] तिलोयपण्णत्ती [७.४५५ते दीवे तेसट्ठी छव्वीसंसा खसत्तएक्कहिदा । एक्को च्चिय वेदीए कलाओ चउहत्तरी होति ॥ ४५५ अट्ठारसुत्तरसदं लवणसमुद्दम्मि तेत्तियकलाओ । एदे मिलिदा उदया तेसीदिसदाणि अटुताल कला॥ ४५६ अट्ठासीदिगहाणं एक चिय होदि जत्थ चारखिदी । तज्जोगी बीहीमो पडिवीहिं होति परिहीओ ॥ ४५७ परिहीसु ते चरते तागं कणयाचलस्स विच्चालं । अण्णं पि पुवमणिदं कालवसादो पणमुवएसं ॥ ४५८ । गहाणं परूवणा सम्मत्ता। ससि पणरसाणं वीहीणं ताण होति मन्झम्नि | अट्ट च्चिय वीहीमो अट्ठावीसाग रिक्खाणं ॥ ४५९ वे उदयस्थान एक सौ सत्तरसे भाजित छब्बीस भाग अधिक तिरेसठ जम्बूद्वीपमें और चौहत्तर कला अधिक केवल एक उसकी वेदीके ऊपर है ॥ ४५५॥ ___ जं. द्वी. ६३३७ । वेदी ११७ । लवणसमुद्रमें उतनी ( ११८) ही कलाओंसे अधिक एक सौ अठारह उदयस्थान हैं । ये सब उदयस्थान मिलकर अड़तालीस कलाओंसे अधिक एक सौ तेरासी हैं ।। ४५६ ।। - उदाहरण - लवणसमुद्र में बिम्बविस्तारसहित सूर्यका चारक्षेत्र यो० ३३०४६ है, ३३०४६ = २ ० १७८ : १.१° = ११८१४८ उदयस्थान । ६३३७० + ११७ + ११८१४० = १८३ १४० कुल । __ यहां अठासी ग्रहोंका एक ही चारक्षेत्र है जहां प्रत्येक बी में उनके योग्य वीथियां और परिधियां हैं ॥ ४५७ ॥ वे ग्रह इन परिधियों में संचार करते हैं । इनका मेरु पर्वतसे अन्तराल तथा और भी जो पूर्वमें कहा जा चुका है इसका उपदेश कालवश नष्ट होचुका है ।। ४५८ ॥ ग्रहोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई । चन्द्रकी पन्द्रह गलियोंके . मध्यमें उन अट्ठाईस नक्षत्रोंकी आठ ही गलियां होती हैं ॥ ४५९ ॥ १ द २१ / ९४, ब ६३ १४ | २ द ससिणे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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