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________________ ७. ३२८ ] सत्तमो महाधियारो एवं बाहिरपट्ठिमपतं दव्वं । पण उदिसहस्सा तियसयाणि बीसुत्तराणि जोयणया छत्तीस दुसयअंसा विदियपहक्कम्मि अंतपहताओ ॥ ९५३२० २३६ ९१५ पंचदुगससा पंचेक्कक्कमेण जोयणया । अंसा णवदुगसत्ता विदियपद्दकम्मि लवणछट्ठसे || ३२५ १५७८२५ ७२९ ९१५ इ परिस्यरासिगदालम्भद्दियपंचसय गुणिदं । णमतियभट्ठेक्कहिदे ताओ तत्रणाम्म तदियमग्गठिदे ॥ :| [ ७११ ५४७ १८३० णवयसहस्सा [s] चउसयाणि बावण्णजोयगाणि कला । चउत्तरिमेत्ताओ तदियपहक्कम्मिं मंदरे ताभो || ७४ १८३० Jain Education International ९४५१ तियतियएक्कतिपंचा अंककमे पंचसत्तदुगकला । भट्टदुणवदुगभजिदा ताओ खेमाए तदियपहसूरे ॥ બ૩ ૧૧૨ / ૨૧૦૦/ इस प्रकार बाह्य पथके अधस्तन पथ तक ले जाना चाहिये ।. सूर्यके द्वितीय पथमें स्थित होने पर अन्तिम पथमें तापका प्रमाण पंचानत्रै हजार तीन सौ बीस योजन और दो सौ छत्तीस भाग अधिक रहता है ॥ ३२४ ॥ ९५३२०३३६ ॥ सूर्य द्वितीय पथमें स्थित होनेपर लवण समुद्र के छठे भागमें तापक्षेत्रका प्रमाण पांच, दो, आठ, सात, पांच और एक, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् एक लाख सत्तावन हजार आठ सौ पच्चीस योजन और सात सौ उनतीस भाग अधिक रहता है || ३२५ || १५७८२५५३६ । इष्ट परिधिराशिको पांच सौ सैंतालीससे गुणित करके उसमें एक हजार आठ सौ तीसका भाग देने पर जो लब्ध आये उतना सूर्यके तृतीय मार्गमें स्थित रहने पर विवक्षित परिधिर्मे तापक्षेत्रका प्रमाण रहता है ॥ ३२६ ॥ १७२९७२३४; १७२९७१ उदाहरण - इष्ट मेरुपरिधि ३१६२२ x ५४७ ३४ ÷ १८३० = ९४५२८३ मेरुका तापक्षेत्र | सूर्यके तृतीय मार्ग में स्थित होनेपर मन्दर पर्वत के ऊपर तापक्षेत्रका प्रमाण नौ हजार चार सौ बावन योजन और चौहत्तर कलामात्र अधिक रहता है ।। ३२७ ॥ ९४५२,४३ । सूर्यके तृतीय मार्ग में स्थित होनेपर क्षेमा नगरीमें तापका प्रमाण तीन, तीन, एक, तीन, और पांच, इन अंकों के क्रमसे तिरेपन हजार एक सौ तेतीस योजन और दो हजार नौ सौ अट्ठाईससे भाजित दो हजार छह सौ पचहत्तर कला अधिक रहता है ॥ ३२८ ॥ ५३१३३३६५६ । OUR For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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