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________________ -७. २४१ ] सतमो महाधियारो [ ६९५ रूप गुणणं मग्गसूइवडीए । पढमाबाहामिलिदं वासरणाहाण इट्ठविच्चाले ॥ २३७ raण उदिसहस्सा छस्सयाणि पणद्दाल जोयणाणि कला । पणतीस दुइज्जपहे दोन्हं भाणूण विच्चालं ॥ ३५ ९९६४५ R ६१ एवं मनिममरगंतं दव्वं । एक्कं लक्खं पण्णासहिय सयजोयणाणि अदिरेगो । मज्झिमपहम्मि दोहं विच्चालं कमलबंधूणं ॥ २३९ १००१५० | एवं दुचरिममगतं दध्वं । एक जोयलक्खं सट्ठीजुत्ताणि छपयाणि पि । बाहिरपहम्मि दो सदस्स किरणाण विच्चालं ॥ २४० १००६६० । इच्छतो रविबिंबं सोहेजसु तस्स सयलविच्चालं । धुवरासिस्स य मज्झे चुलसीदीजुदस देण भजिदव्वं ॥ एक कम इष्ट पथको दुगुणित मार्गसूचीवृद्धि से गुणा करनेपर जो प्रमाण प्राप्त हो उसे प्रथम अन्तरालमें मिला देनेसे सूर्यका अभीष्ट अन्तराल प्रमाण आता है ॥ २३७ ॥ उदाहरण - इष्ट पथ १८४ - १ = १८३; द्विगुणित प. सू. १०२०; प्र. अं. ९९६४० + १०२० ६२२२० ६ १ ve/2012/21/ ३११५८ | २२३१६ ६१ ६१ १८३ १००६६० अन्तिम पथ अन्तराल । द्वितीय पथमें दोनों सूर्योका अन्तराल निन्यानबे हजार छह सौ पैंतालीस योजन और पैंतीस भागमात्र है ॥ २३८ ॥ ९९६४५६ ॥ इस प्रकार मध्यम मार्ग तक लेजाना चाहिये । ४८ ६१ १ द १२२ । १८३. Jain Education International मध्यम पथमें दोनों सूर्यका अन्तराल एक लाख एक सौ पचास योजनमात्र होता है ॥ २३९ ॥। १००१५० । इस प्रकार द्विचरम मार्ग तक लेजाना चाहिये । बाह्य पथमें दोनों सूर्यका अन्तराल एक लाख छह सौ साठ योजनप्रमाण है ॥२४० ॥ १००६६० । = यदि सूर्यम्बके विस्तारको जानने की इच्छा हो तो ध्रुवराशिके बीचमेंसे उसके समस्त मार्गान्तरालको घटाकर शेषमें एक सौ चौरासीका भाग देना चाहिये । ऐसा करने से जो लब्ध आवे उतना ही सूर्यबिम्बका विस्तार होता है | २४१ ॥ ध्रु. रा. ३११५८ ६ १ <६१२; ८६१२ ÷ १८४ = ६ सूर्यबिम्ब वि. । २२३२६ ६१ = For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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