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________________ ६७२] तिलोयपण्णत्ती [ ७. ११० वरभवरमज्झिमाण तिवियप्पाणि हुवंति एदाणि । उरिमतलविक्खंभा जेट्टाणं दोसहस्सदंडाणि ॥ ११० पंचसयाणि धणूणि तविखंभो हुवेदि अवराणं । तिदुगुणिदावरमागं मज्झिमयाणं दुठागेसु ॥ १९॥ ५००। १००० । १५०० । तेरिच्छमंतरालं जहण्णताराण कोससत्तंसो । जोयणमा पंचासा मजिसमए सहस्स मुक्कस्से । ११२ को १ जो ५० । १०००। सेसाओ वणणाओ पुव्वपुराणं हुवंति सरिसाणिं । एत्तो गुरूव इद पुरपरिमाणं परवेभो ॥ ११३ ।विग्णासं समत्त । णियणियरासिपमाणं एदाणं जं मयंकपैहुद्दीणं । णिपणियगयरपमाणं तेत्तियमेत्तं च कूडजिणभवणं । ११४ जोइनणणयरीणं सव्वाणं रुंदमाणसारिन्छ । बहलत्तं मण्णते लोगविभायस्स आइरिया ॥ ११५ परिमाणं सम्मत्तं। पाठान्तरम् । ये उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम भेदसे तीन प्रकार होते हैं । उनमेंसे उत्कृष्ट नगरोंके उपरिम तलका विस्तार दो हजार धनुषमात्र है ॥ ११० ॥ २००० । जघन्य नगरोंका वह विस्तार पांचसौ धनुषप्रमाण है । इस जघन्य प्रमाणको तीन और दोसे गुणा करनेपर क्रमसे दो स्थानों में मध्यम नगरोंका विस्तार होता है ॥ १११ ॥ ५०० । १००० । १५०० । जघन्य ताराओंका तिरछा अन्तराल एक कोशका सातवां भाग, मध्यम ताराओंका पचास योजन, और उत्कृष्ट ताराओंका एक हजार योजनप्रमाण है ॥ ११२ ॥ को. ३ । यो. ५० । १००० । इनका शेष वर्णन पूर्व पुरोंके सदृश है । अब यहांसे आगे गुरूपदिष्ट पुरोंके प्रमाणको कहते हैं ॥ ११३ ॥ इस प्रकार विन्यासका कथन समाप्त हुआ । इन चन्द्रादिकोंकी निज निज राशिका जो प्रमाण है उतना ही अपने अपने नगरों, कूटों और जिनभवनोंका प्रमाण है ॥ ११४ ॥ लोकविभाग ' के आचार्य समस्त ज्योतिर्गणोंकी नगरियोंके विस्तारप्रमाणके सदृश ही उनके बाहल्यको भी मानते हैं ॥ ११५॥ पाठान्तर । परिमाणका कथन समाप्त हुआ। १द ब सम्मत्ता. २द ब पहाणं. ३ द जम्हयंक, ब जमयंक. ४ द ब जोइहण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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