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________________ ६५६ ] तिलोय पण्णत्ती [ ६.१०१ आउ सबंधणभावं दंसणगहणाण कारणं विविदं । गुणठाणापहुदीर्णि भउमाणं भावसामाणि ॥ १०१ जोयणदत्तियकदी भजिदे पदरस्स संखभागम्मि । जं लद्धं तं माणं वेंतरलोए जिणपुराणं ॥ १०२ ४ / ५३०८४१६०००००००००० । इंदसदणमिदचलणं अनंतसुहणाणविरियदंसणया । भब्बंबुजवणभाणं सेयंसजिणं पसादेमि ॥ १०३ एथमाइ रियपरंपरागयतिलोयपण्णत्तीए वेंतरलोय सरूवणिरूवणपण्णत्ती णाम छट्टो महाहियारो सम्मत्तो ॥ ६ ॥ आयु बांधनेवाले भाव, सम्यग्दर्शनग्रहण के विविध कारण और गुणस्थानादिकोंका कथन व्यन्तरोंके भवनवासियोंके समान जानना चाहिये ॥ १०१ ॥ जगप्रतरके संख्यात भागमें तीनसौ योजनोंके वर्गका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तरलोक में जिनपुरोका प्रमाण है । ।। १०२ ॥ जिनके चरणोंमें सौ इन्द्रोंने नमस्कार किया है और जो अनन्तसुख, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य व अनन्तदर्शन से सहित हैं तथा भव्यजीवरूप कमलवनके विकसित करनेके लिये सूर्यके समान हैं ऐसे श्रेयांस जिनको मैं प्रसन्न करता हूं ॥ १०३ ॥ इस प्रकार आचार्य परंपरागत त्रिलोकप्रज्ञप्ति में व्यन्तर लोकस्वरूपनिरूपण प्रज्ञप्ति नामक छठा महाधिकार समाप्त हुआ । १ द ब पसादम्मि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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