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तिलोय पण्णत्ती
[ ६.१०१
आउ सबंधणभावं दंसणगहणाण कारणं विविदं । गुणठाणापहुदीर्णि भउमाणं भावसामाणि ॥ १०१ जोयणदत्तियकदी भजिदे पदरस्स संखभागम्मि । जं लद्धं तं माणं वेंतरलोए जिणपुराणं ॥ १०२ ४ / ५३०८४१६०००००००००० ।
इंदसदणमिदचलणं अनंतसुहणाणविरियदंसणया । भब्बंबुजवणभाणं सेयंसजिणं पसादेमि ॥ १०३ एथमाइ रियपरंपरागयतिलोयपण्णत्तीए वेंतरलोय सरूवणिरूवणपण्णत्ती णाम छट्टो महाहियारो सम्मत्तो ॥ ६ ॥
आयु बांधनेवाले भाव, सम्यग्दर्शनग्रहण के विविध कारण और गुणस्थानादिकोंका कथन व्यन्तरोंके भवनवासियोंके समान जानना चाहिये ॥ १०१ ॥
जगप्रतरके संख्यात भागमें तीनसौ योजनोंके वर्गका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तरलोक में जिनपुरोका प्रमाण है । ।। १०२ ॥
जिनके चरणोंमें सौ इन्द्रोंने नमस्कार किया है और जो अनन्तसुख, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य व अनन्तदर्शन से सहित हैं तथा भव्यजीवरूप कमलवनके विकसित करनेके लिये सूर्यके समान हैं ऐसे श्रेयांस जिनको मैं प्रसन्न करता हूं ॥ १०३ ॥
इस प्रकार आचार्य परंपरागत त्रिलोकप्रज्ञप्ति में व्यन्तर लोकस्वरूपनिरूपण प्रज्ञप्ति नामक छठा महाधिकार समाप्त हुआ ।
१ द ब पसादम्मि.
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