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________________ - ६. १०० ] महाधि [ ६५५ सेसा वैतरदेवा नियणियओहीण जेत्तियं खेत्तं । पूरंति तेत्तियं पि हु पत्तेक्कं विकरणबलेणं ॥ ९६ संखेजजोयणाणि संखजाऊ य एक्कसमयेणं । जादि असंखेजाणिं ताणि असंखेजआऊ य ॥ ९७ | सत्तिपरूवणा सम्मत्ता । अट्ठा विपक्कं किंणरपहुदीण वेंतरसुराणं । उच्छेहो णादन्वो दसकौदंडप्पमाणेणं ॥ ९८ । उच्छे परूवणा सम्मत्ता । चलक्खाधियतेवीसकोडिअंगुल्यसूइवग्गेहिं । भजिदाए सेठीए बग्गे भोमाण परिमाणं || ९९ | ५३०८४१६०००००००००० । । संखा सम्मता । संखातीदविभत्ते वितरचासम्मि लदूपरिमाणा । उपजंता देवा मरमाणा होंति तम्मेत्ता ॥ १०० । उपज्जणमरणा सम्मत्ता । बाकीके व्यन्तर देवोंमेंसे प्रत्येक देव अपने अपने अवधिज्ञानोंका जितना क्षेत्र है। उतने मात्र क्षेत्रको विक्रियाबलसे पूर्ण करते हैं ॥ ९६ ॥ संख्यात वर्षप्रमाण आयुसे युक्त व्यन्तर देव एक समयमें संख्यात योजन और असंख्यात वर्षप्रमाण आयुसे युक्त वह असंख्यात योजन जाता है ॥ ९७ ॥ शक्तिप्ररूपणा समाप्त हुई । किन्नर प्रभृति आठों व्यन्तर देवोंमेंसे प्रत्येककी उंचाई दश धनुषप्रमाण जानना चाहिये ॥ ९८ ॥ उत्सेधप्ररूपणा समाप्त हुई । तेईस करोड़ चार लाख सूच्यंगुलों के वर्गका (अर्थात् तीन सौ योजन के वर्गका) जगश्रेण कि वर्ग में भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तर देवोंका प्रमाण है ॥ ९९ ॥ संख्याका कथन समाप्त हुआ । व्यन्तरों के असंख्यातका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने देव उत्पन्न होते हैं और उतने ही मरते हैं ॥ १०० ॥ उत्पद्यमान व म्रियमाण देवोंका कथन समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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