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________________ -६.६७] छट्टो महाधियारो पढमुरचारिदणामा दक्षिणइंदा हवंति एदेसुं । चरिमुच्चारिदणामा उत्तरइंदा पभावजुदा ॥ ५९ ताण णयराणि अंजणकवजधातुकसुवण्णमणिसिलका। दीवे वजे रजदे हिंगुलके होति हरिदाले ॥६० णियणामकं मम्झे पहकतावत्तमज्मणामाई । पुवादिसु इंदाणं समभागे पंच पंच जयराणि ॥ ६१ जंबूदीवसरिछा दक्खिणइंदा य दक्खिणे भागे । उत्तरभागे उत्तरइंदा गं तेसु दीवेसुं ॥ ६२ समचउरसंठिदाणं पायारा तप्पुराण कणयमया । विजयसुरणयरवण्णिदपायारचउत्थभागसमा ॥ ६३ ते णयराणं बाहिर असोयसत्तच्छदाण वणसंडा । चंपयचूदाण तहा पुवादिदिसासु पसेक्कं ॥ ६४ जोयणलक्खायामा पण्णाससहस्सरंदसंजुत्ता । ते वणसंडा बहुविहविविहविभूदीहि रेहति ॥ ६५ णयरेसु तेसु दिध्वा पासादा कणयरजदयणमया । उच्छेहादिसु तेसु उवएसो संपइ पणट्ठो ॥ ६६ एदसु वेतरिंदा कीडते बहुविभूदिभंगीहिं । णाणापरिवारजुदा भणिमो परिवारणामाई ॥ ६७ इन इन्द्रोंमेंसे जिनके नामोंका उच्चारण पहिले किया गया है वे दक्षिणेन्द्र, और जिनके नामोंका उच्चारण अन्तमें किया गया है वे उत्तरेन्द्र हैं। ये सब इन्द्र प्रभावसे संयुक्त होते हैं ॥ ५९॥ उन व्यन्तर देवोंके नगर अंजनक, वज्रधातुक, सुवर्ण, मनःशिलक, वज्र, रजत, हिंगुलक और हरिताल द्वीपमें स्थित हैं ॥ ६० ॥ इन्द्रोंके सम भागमें पांच पांच नगर होते हैं । इनमेंसे अपने नामसे अंकित नगर मध्यमें और प्रभ, कान्त, आवर्त एवं मध्य, इन नामोंसे अंकित [ जैसे- किन्नरप्रभ, किन्नरकान्त, किन्नरावर्त, किन्नरमध्य ] नगर पूर्वादिक दिशाओंमें होते हैं ॥ ६१ ॥ जम्बूद्वीपके समान इन द्वीपोंमें दक्षिण-इन्द्र दक्षिण भागमें, और उत्तर-इन्द्र उत्तर भागमें निवास करते हैं ॥ ६२ ॥ सम चौकोणरूपसे स्थित उन पुरोंके सुवर्णमय कोट विजय देवके नगरके वर्णनमें कहे गये कोटके चतुर्थ भागप्रमाण हैं ॥ ६३ ॥ उन नगरोंके बाहिर पूर्वादिक दिशाओंमें से प्रत्येक दिशामें अशोक, सप्तच्छद, चम्पक तथा आम्रवृक्षोंके वनसमूह स्थित हैं ॥ ६४ ॥ एक लाख योजन लंबे और पचास हजार योजनप्रमाण विस्तारसे सहित वे वनसमूह बहुत प्रकारकी अनेकों विभूतियोंसे सुशोभित होते हैं ॥ ६५ ॥ उन नगरोंमें सुवर्ण, चांदी एवं रत्नमय जो दिव्य प्रासाद हैं उनकी ऊंचाई आदिका उपदेश इस समय नष्ट होगया है ॥६६॥ इन नगरोंमें नाना प्रकारके परिवारसे संयुक्त व्यन्तरेन्द्र बहुत प्रकारकी विभूतियोंसे क्रीड़ा करते हैं । यहां उनके परिवारके नामोंको कहते हैं ॥ ६७ ॥ TP. 82 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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