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________________ ६४४ ] तिलोय पण्णत्ती [ ६.२४ कूडा जिणिदभवणा पासादा वेदिया वहुदी । भवणपुराण सरिच्छं आवासाणं पिणादव्वा ॥ २४ | आवासा सम्मत्ता । | णिवासखेत्तं सम्मतं । किंणराकै पुरुसमहोरगा य गंधव्वजक्खरक्खसिया । भूदपिसाया एवं अट्ठविहा वैतरा होंति ॥ २५ बोससहरूसमेता भवणा भूदाण रक्खसाणं पि । सोलससहस्ससंख/ सेसाणं णत्थि भवणाणिं ॥ २६ १४००० | १६००० | | बेंतरभेदा सम्मत्ता । किंणरकिंपुरुसादियवें तरदेवाण अट्टभेयाणं । तिवियप्पणिलयपुरदो चेत्तदुमा होंति एक्केक्का || २७ कमलो असायचंपणागहुमतंदुरू य णग्गोहे' । कंटयरुक्खो तुलसी कदंब विदभ' त्ति ते अहं ॥ २८ सन् चेतरू भावणसुरचेत रुक्खसारिच्छा । जीउप्पत्तिलयाणं हेऊ पुढवीसरूवा थ || २९ कूट, जिनेन्द्रभवन, प्रासाद, वेदिका और वन आदि भवनपुरोंके सदृश आवासों के भी जानना चाहिये ॥ २४ ॥ आवासों का वर्णन समाप्त हुआ । इस प्रकार निवासक्षेत्रका कथन समाप्त हुआ । किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच, इस प्रकार व्यन्तर देव आठ प्रकारके होते हैं ॥ २५ ॥ भूतों के चौदह हजार प्रमाण और राक्षसों के सोलह हजार प्रमाण भवन हैं । शेष व्यन्तरोंके भवन नहीं हैं ॥ २६ ॥। १४००० । १६००० । व्यन्तरभेदों का कथन समाप्त हुआ । किन्नर - किम्पुरुषादिक आठ प्रकारके व्यन्तर देवों सम्बन्धी तीनों प्रकारके ( भवन, भवनपुर, आवास ) भवनों के सामने एक एक चैत्यवृक्ष है || २७ ॥ अशोक, चम्पक, नागद्रुम, तुम्बरु, न्यग्रोध ( वट), कण्टकवृक्ष, तुलसी और कदम्ब वृक्ष, इस प्रकार क्रमसे वे चैत्यवृक्ष आठ प्रकारके हैं ॥ २८ ॥ ये सब चैत्यवृक्ष भवनवासी देवोंके चैत्यवृक्षों के सदृश जीवों की उत्पत्ति व विनाशके कारण और पृथिवीस्वरूप हैं ॥ २९ ॥ १ व बणग्गोदे. २ [ विदिअ ]. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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