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________________ ६३८ ] तिलोपपण्णी [५.३१९ ऐसे उप्पण्णवी इंदियस्स उकस्सोगाहणा कस्स दीसह । तं केन्तिया इदि उसे बारसजोयणायामजोषणमुहस्स खेत फलं - व्यासं तावत्कृत्वा वदनदलोनं मुखार्धवर्गयुतम् । द्विगुणं वतुर्विभक्तं सनाभिकेऽस्मिन् गणितमाहुः ॥ ३१९ एदेण सुत्ते खेसफलमाणिदे तेहत्तरिउस्से हैजोयणाणि भवति । ७३ । मायामे मुहसोहि पुणरवि भायामसहिदमुह भजियं । बाहल्लं णायन्वं संखायारट्टिए खे ॥ ३२० पण सुसे बाहले आाणिदे पंचजोयणपमाणं होदि । ५ । पुग्वमाणीदते ह स रिभूदखे सफलं पंचजीवनवादले गुणिदेषणजोयणाणि तिष्णिसयपण्णट्टी होंति । ३६५। एवं घणपमाणंगुकाणि कदे एकलक्ख. बीससहस्स दोणिसय एक्कहसरीकोडीओ सत्तावण्णलक्ख- नवसहस्स चढसय चालीसरूवेहि गुणिदघणंगुलमेतं होदि । तं चेदं । ६ । १३२२७१५७०९४४० । स्थित क्षेत्र में उत्पन्न किसी दोइन्द्रियके उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । वह कितने प्रमाण है, ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि बारह योजन लंबे और चार योजन मुखवाले [ शंखका ] क्षेत्रफल - विस्तारको उतनी बार करके अर्थात् विस्तारको विस्तारसे गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो उसमें मुखके आवे प्रमाणको कम कर शेपमें मुखके आधे प्रमाणके वर्गको जोड़ देने पर जो प्रमाण प्राप्त हो उसे दूना करके चारका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे शंखक्षेत्रका गणित कहते हैं ॥ ३१९ ॥ इस सूत्र क्षेत्रफल के लानेपर तिहत्तर उत्सेध योजन होते हैं । ७३ । आयाममेंसे मुखको कम करके शेषमें फिर आयामको मिलाकर मुखका भाग देनेपर जो maa आ उतना खके आकारसे स्थित क्षेत्रका बाहल्य जानना चाहिये ॥ ३२० ॥ इस सूत्र से बाहल्यको लानेपर उसका प्रमाण पांच योजन होता है |५| पूर्वमें लाये हुए तिहत्तर योजनप्रमाण क्षेत्रफलको पांच योजनप्रमाण बाहल्यसे गुणा करनेपर तीन सौ पैंसठ घनयोजन होते हैं | ३६५ | इसके वनप्रमाणांगुल करनेपर एक लाख बत्तीस हजार दो सौ इकहत्तर करोड़ सत्तावन लाख नौ हजार चारसौ चालीस रूपोंसे गुणित घनांगुलमात्र होता है । उदाहरण- शंखका आयाम १२ योजन; मुख ४ यो । १२x१२ = १४४; १४४=१४२; १४२+(३) = १४६; १४६x२= २९२; २९२+४ = ७३ शंखका क्षेत्रफल । १२- ४+१२=२०, २०÷४ = ५ शंखका बाहल्य । ७३ × ५ = ३६५ यो शंखका घनफल. = ३६५ x ३६२३८७८६५६ = १३२२७१५७०९४४० प्रमाण घनांगुल | १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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