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तिलोयपण्णत्ती
[५.३०५पाउसण्णा तिरियगदी सयलाओ इंदियाओ छक्काया । एक्कारस जोगा तियवेदा कोहादियकसाया ॥३०५ छण्णाणा दो संजम तियदसण दव-भावदो लेस्सा । छच्चेव य भवियदुर्ग छस्सम्मत्तेहिं संजुत्ता ॥ ३०६ सण्णिभसण्णी होंति हु ते आहारा तहा अणाहारा । णाणोवजोगदंसणउवजोगजुदाणि ते सम्वे ॥ ३०७
। एवं गुणठाणा सम्मत्ता। केइ पडिबोहणेण य केइ सहावेण तासु भूमीसुं । दट्टणं सुहदुक्खं केइ तिरिक्खा बहुपयारा ॥ ३०८ जाइभरणेण केई केह जिणिंदस्स महिमदंसणदो । जिणबिंबदसणेण य पढमुवसम वेदगं च गेण्हंति ३०९
। सम्मत्तगहणं गदं। पुढविप्पहुदिवणप्फदिअंतं वियला य कम्मणरतिरिए । ण लहंति तेउवाउ मणुवाउ अणंतरे जम्मे ॥३१० बत्तीसभेदतिरिया ण होंति कइयाइ भोगसुरणिरए । सेढिघणमेत्तलोए सव्वे पक्खेसु जायति ॥ ३॥
सब तियेच जीवोंके चारों संज्ञायें, तिर्यंचगति, समस्त इन्द्रियां, छहों काय, ग्यारह योग (वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक और आहारकमिश्रको छोड़), तीनों वेद, क्रोधादिक चारों कषायें, छह ज्ञान (३ ज्ञान और ३ अज्ञान ), दो संयम ( असंयम व देशसंयम ), केवलदर्शनको छोड़ शेष तीन दर्शन, द्रव्य व भाव रूपसे छहों लेश्यायें, भव्यत्व-अभव्यत्व और छहों सम्यक्त्व होते हैं । ये सब तियंच संज्ञी व असंज्ञी, आहारक व अनाहारक, तथा ज्ञान व दर्शन रूप दोनों उपयोगोंसे सहित होते हैं ॥ ३०५-३०७ ॥
इस प्रकार गुणस्थानादिका वर्णन समाप्त हुआ। उन भूमियोंमें कितने ही तिथंच जीव प्रतिबोधसे और कितने ही स्वभावसे भी प्रथमोपशम एवं वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं । इसके अतिरिक्त बहुत प्रकारके तिर्यंचोंमेंसे कितने ही सुख-दुखको देखकर, कितने ही जातिस्मरणसे, कितने ही जिनेन्द्रमहिमाके दर्शनसे, और कितने ही जिनबिम्बके दर्शनसे प्रथमोमशम व वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं ॥ ३०८-३०९॥
इस प्रकार सम्यक्त्वग्रहणका कथन समाप्त हुआ। पथिवीको आदि लेकर वनस्पतिपर्यन्त स्थावर और विकलेन्द्रिय जीव कर्मभूमिज मनुष्य व तियचोंमें उत्पन्न होते हैं । परन्तु विशेष इतना है कि तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव अनन्तर जन्ममें मनुष्यायुको नहीं पाते हैं ॥ ३१० ॥
संज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्तको छोड़ शेष बत्तीस प्रकारके तिथंच जीव भोगभूमिज, देव और नारकियोंमें कदापि उत्पन्न नहीं होते। शेष जीव श्रेणीके धनप्रमाण लोकमें ये सब कही भी उत्पन्न होते हैं ॥ ३११ ॥
१ष सम्ब.
२द ब पदमवसमे.
३६ किरियाइ.
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