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पंचमो महाधियारो
[६१३ सम्वे भोगभुवाणं संकप्पवसेण होइ सुहमेक्कं । कम्मावणितिरियाणं सोक्खं दुक्खं च संकप्पो ॥ २९८
। सुहदुक्खं समत्तं ।
तेत्तीसभेदसंजुदतिरिक्खजीवाण सम्वकालम्मि । मिच्छत्तगुणट्ठाणं वोच्छं सण्णीण तं माणं ॥ २९९ पणपणभज्जाखडे भरहेरावदखिदिम्मि मिच्छत्तं । अवरे वरम्मि पण गुणठाणाणि कयाइ दीसंति ॥ ३०० पंचविदेहे सट्ठिसमण्णिदसदअजवखंडए तत्तो। विजाहरसेढीए बाहिरभागे सयपहगिरीदो ॥ ३०१ सासणमिस्सविहीणा तिगुणटाणाणि थोवकालम्मि । अवरे वरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ दीसंति ॥ ३०२ सम्वेसु वि भोगभुवे दो गुणठाणाणि थोवकालम्मि । दीसंति चउवियप्पं सवमिलिच्छम्मि' मिच्छत्तं ॥३०३ पज्जत्तापजत्ता जीवसमासाणि सयलजीवाणं पज्जात्तअपजत्ती पाणाणं होति णिस्सेसा ॥ ३०४
सब भोगभूमिज तिर्यंचोंके संकल्पवशसे केवल एक सुख ही होता है, और कर्मभूमिज तिर्यंचोंके सुख व दुख दोनोंकी कल्पना होती है ।। २९८ ॥
सुख-दुखका वर्णन समाप्त हुआ।
संज्ञी जीवोंको छोड़ शेष तेतीस प्रकारके भेदोंसे युक्त तिर्यंच जीवोंके सब कालमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है । संज्ञी जीवोंके गुणस्थानप्रमाणको कहते हैं ॥ २९९ ॥
. भरत और ऐरावत क्षेत्रके भीतर पांच पांच आर्यखण्डोंमें जघन्य रूपसे एक मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित् पांच गुणस्थान भी देखे जाते हैं ॥ ३०० ॥
पांच विदेहों के भीतर एकसौ साठ आर्यखण्डोंमें, विद्याधरश्रेणियों में और स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्य भागमें सासादन एवं मिश्र गुणस्थानको छोड़ तीन गुणस्थान जघन्यरूपसे स्तोक कालके लिये होते हैं । उत्कृष्टरूपसे पांच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते हैं ॥ ३०१-३०२॥
सर्व भोगभूमियोंमें दो गुणस्थान और स्तोक कालके लिये चार गुणस्थान देखे जाते हैं । सब म्लेच्छखण्डोंमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है ॥ ३०३ ॥
सम्पूर्ण जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों जीवसमास, पर्याप्ति और अपर्याप्ति तथा सब ही प्राण होते हैं ॥ ३०४ ॥
१द सबमे .
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