________________
६०८]
तिलोयपण्णत्ती
. [५.२८०भावलियाए असंखेज्जदिमागं विरलिवूण सेसखंड समखंडं करिय दिण्णे तत्थ बहुखंडे तदियपुंजे पक्खित्ते घउरिंदिया होति । सेसेगखंड चउत्थपुंजे पक्खिते पंचेदियमिच्छाइट्ठी होति । तस्स टुवणा परिमाणा वि
बी= ८४२४ ।
४४४६५६१॥
ती = ६१२०।
४१४६५६१।
च = ५८६४।
४.४१६५६१ ।
प४५८३६ ।
४|४|६५६१ ।
५
पुणो पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण जगपदरे भाग घेत्तूण जं लद्वं तं आवलियाए असंखेजदिभागेण खंडिऊणेगखंडं पुधं ठवेदूण सेसबहुभागं घेत्तूण चत्तारि सरिसपुंज कादूण द्ववेयव्वं । पुणो आवलियाए असंखज्जदिमागं विरलिदूण अवणिदएयखंड समखंडं करिय दिण्णे' तत्थ बहुखंडे पढमपुंजे पक्खित्ते तेइंदियपज्जत्ता होति । पुणो आवलियाए असंखज्जदिभागं विरलिदूण सेस एयखंडं समखंडं कादूण दिण्णे तस्थ बहुखंडा बिदियपुंजे पक्खित्ते बेइंदियपजत्ता होति । पुणो आवलियाए असंखेजदिभागं विरलिदूण सेसएयखंड समखंड कादूण दिण्णे तत्थ बहुभाग तदियपुंजे पक्खत्ते पंचेंदियपज्जत्ता होंति पुणो सेसेगभागं
कर शेष खण्डके समान खण्ड करके देनेपर उनमेंसे बहुभागको तृतीय पुंजमें मिला देनेसे चारइन्द्रिय जीवोंका प्रमाण होता है । शेष एक खण्डको चौथे पुंजमें मिलानेपर पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण होता है। (उनकी स्थापना व प्रमाण मूलमें तथा गो. जी. गाथा १७९ की टीकामें देखिये )।
पुनः प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे भाजित जगप्रतरको ग्रहण करके अर्थात् जगप्रतरमें प्रतरांगुलके संख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर एक भागको पृथक् स्थापित करके शेष बहुभागके चार सदृश पुंज करके स्थापित करना चाहिये । पुनः आवलीके असंख्यातवें भागका विरलन करके अलग स्थापित किये हुए एक खण्डके समान खण्ड करके देनेपर उसमेंसे बहुभागको प्रथम पुंजमें मिला देनेसे तीनइन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है। पुनः आवलीके असंख्यातवें भागका विरलनकर शेष एक भागके समान खण्ड करके देनेपर उसमेंसे बहुभागको द्वितीय पुंजमें मिला देनेसे दोइन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है । पुनः आवलीके असंख्यातवें भागका विरलनकर शेष खण्डके समान खण्ड करके देनेपर उसमेंसे बहुभागको तीसरे पुंजमें मिला देनेसे पंचेन्द्रिय पर्याप्त
१द जगपदर, ब जगपदरं.
२द ब द्ववेयं वा.
३द ब दिण्णो.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org