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________________ ५८.] तिलोयपण्णत्ती [५.२६९२७९००००० । एवं हिटिमसमुदस्स विक्खंभादो उवरिमसमुदस्स [ विक्खंभं चउग्गुणं, हिटिमसमुदस्स ] मायामादो उवरिमसमुदस्स भायाम चउग्गुणं सत्तावीसलक्खहिं अब्भहियं होऊण गच्छइ जाव सयंभूरमणसमुद्दो त्ति । लवणसमुदस्स खेत्तफलादो कालोदगसमुदस्स खेत्तफलं अट्ठावीसगुणं, कालोदगसमुहस्त खेत्तफलादो पोक्खरवरसमुदस्स खत्तफलं सत्तारसगुणं होऊण तिष्णिलक्ख-सटि सहस्सकोडिजोयणेहि भन्महियं होदि ३६०००००००००००। पोक्खरवरसमुदस्स खेत्तफलादो वारुणिवरसमुदस्स खेत्तफलं सोलसगुणं होऊण पुणो चौत्तीसलक्ख-छप्पण्णसहस्सकोडिजोयणेहिं अब्भहियं होदि । पमाणं ३४५६०००००००००० । एत्तो पहुदि हेट्ठिमणीररासिस्स खेत्तफलादो तदणतरोवरिमणीररासिस्स खेत्तफलं सोलसगुणं पक्खेवभूदचोत्तीसलक्ख-छप्पण्णसहस्सकोडिजोयणाणि चउगुणं होऊण गच्छइ जाव सयंभूरमणसमुदं त्ति। तत्थ विक्खंभायामखेत्तफलाणं अंतिमवियप्पं वत्तइस्सामो- अहिंदवरसमुहस्स विक्खंभं रज्जूए सोलसमभागं पुण अट्ठारहसहस्स-सत्तसय-पण्णासजोयणेहिं अब्भहियं होदि । तस्स ठवणा- । । १० धण जोयणाणि १८७५० । तस्स आयमं णव रज्जू ठविय सोलसरूवेहिं भाजदमेत्तं पुण सत्तलक्खएकतीससहस्स-बेण्णिसय पण्णासजोयणेहिं परिहाणं होदि । तस्स ठवणा-९ । रिण जोयणाणि ७३१२५० । सयंभूरमणसमुदस्स विक्खंभं एक्कसेढिं ठविय अट्ठावीसरूवेहिं भजिदमेत्तं पुण पंचहत्तरि अधस्तन समुद्रके विष्कम्भसे उपरिम समुद्रका विष्कम्भ चौगुणा, तथा अधस्तन समुद्रके आयामसे उपरिम समुद्रका आयाम चौगुणा और सत्ताईस लाख योजन अधिक होकर स्वयंभूरमणसमुद्र तक चला गया है । लवणसमुद्रके क्षेत्रफलसे कालोदकसमुद्रका क्षेत्रफल अट्ठाईसगुणा और कालोदकसमुद्रके क्षेत्रफलसे पुष्करवर समुद्रका क्षेत्रफल सत्तरहगुणा होकर तीन लाख साठ हजार करोड़ योजन अधिक है ३६०००००००००००। पुष्करवरसमुद्रके क्षेत्रफलसे वारुणीवरसमुद्रका क्षेत्रफल सोलहगुणा होकर चौंतीस लाख छप्पन हजार करोड़ योजन अधिक है ३४५६०० ००००००००। यहां से आगे अधस्तन समुद्रके क्षेत्रफलसे तदनन्तर उपरिम समुद्रका क्षेत्रफल स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यन्त क्रमशः सोलहगुणा होनेके अतिरिक्त प्रक्षेपभूत चौंतीस लाख छप्पन हजार करोड़ योजनोंसे भी चौगुणा होता गया है । उनमें विस्तार, आयाम और क्षेत्रफलके अंतिम विकल्पको कहते हैं - अहीन्द्रवरसमुद्रका विस्तार राजुका सोलहवां भाग और अठारह हजार सात सौ पचास योजन आधिक है । उसकी स्थापना इस प्रकार है- रा. १६ + यो. १८७५० ।। इस समुद्रका आयाम नौ राजुओंको रखकर सोलहका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसमेंसे सात लाख इकतीस हजार दो सौ पचास योजन हीन है । उसकी स्थापनारा. यो. ७३१२५० । स्वयंभूरमणसमुद्रका विस्तार एक जगश्रेणीको रखकर उसमें अट्ठाईसका भाग देनेपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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