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________________ [५७७ -५. २६२ ] पंचमो महाधियारो ....... धण जोयणाणि ९ । तत्थ अदिरेगस्स पमाणाणयणटुं इमा सुत्तगाहालक्खेण भजिदसगसगवासं इगिरूवविरहिदं तेण । सगसगखंडसलागं भजिद अदिरेगपरिमाणं ॥ २६२ एक्कारसमपक्खे अप्पाबहुगं वत्तइस्सामो । तं जहा- लवणसमुद्दस्त खंडसलागाणं संखादो धादईसंडदीवस्स खंडसलागाणं बड्डी वीसुत्तरएक्कसएणब्भहियं होदि १२० । लवणसमुद्दखंडसलागसंमिलिदधादईसंडदीवस्स खंडसलागाणं संखादो कालोदगसमुहस्स खंडसलागाणं वड्डी चउरुत्तरपंचसएणब्भहियं होदि ५०४ । एवं धादईसंडस्स वडिप्पहुदि' हेटिमदीव उवहीणं समूहादो अणंतरोवरिमदीवस्स वा रयणायरस्स वा खंडसलागाणं वड्डी चउगुणं चउवीसरूवेहिं अब्भहियं होऊण गच्छदि जाव सयंभूरमणसमुद्दो त्ति । तत्थ अंतिमवियप्पं वत्तइस्सामोसयंभूरमणसमुद्दादो हेहिमसवर्दीवरयणायराणं खंडसलागाण समूह सयंभूरमणसमुदस्स खंडसलागम्मि अवणिदे वडिपमाणं केत्तियमिदि भगिदे जगसेढीए वग्गं अट्ठाणवदिसहस्साकोडिजोयणेहिं भजिदं पुणो सत्तलक्खजोयणेहिं भजिदतिणिजगसेढीअन्भहियं पुणो चोदसकोसेहिं परिहीणं होदि । तस्स ५ उनमें चौगुणीसे अतिरिक्त प्रमाणको लाने के लिये यह गाथासूत्र है एक लाखसे भाजित अपने अपने विस्तारमेंसे एक रूप कम करके शेषका अपनी अपनी खंडशलाकाओंमें भाग देनेपर अतिरिक्त संख्याका प्रमाण आता है ॥ २६२ ॥ उदाहरण-कालोदकसमुद्रकी चतुर्गुणित खण्डशलाकाओंसे अतिरिक्त खण्डशलाकाओंका प्रमाण- का. स. विस्तार यो. ८ लाख १ लाख - १ = ७; का. स. की खण्डश. ६७२ ’ ७ = ९६ अतिरिक्तप्रमाण । ___ग्यारहवें पक्षमें अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार है- लवणसमुद्रसम्बन्धी खण्डशलाकाओंकी संख्यासे धातकीखण्डद्वीपकी खण्डशलाकाओंकी वृद्धिका प्रमाण एक सौ बीस है १२० । लवणसमुद्रकी खण्डशलाकाओंको मिलाकर धातकीखण्डद्वीपसम्बन्धी खण्डशलाकाओंकी संख्यासे कालोदकसमुद्रसम्बन्धी खण्डशलाकाओंकी वृद्धिका प्रमाण पांच सौ चार है ५०४ । इस प्रकार धातकीखण्डद्वीपसम्बन्धी शलाकावाद्धसे प्रारंभ कर स्वयंभूरमणसमुद्र तक अधस्तन द्वीप-समुद्रोंके शलाकासमूहसे अनन्तर उपरिम द्वीप अथवा समुद्रकी खण्डशलाकाओंकी वृद्धि चौगुणी और चौबीस संख्यासे अधिक होती गई है । उनमेंसे अन्तिम विकल्पको कहते हैं स्वयंभूरमणसमुद्रसे अधस्तन समस्त द्वीप-समुद्रोंके खण्डशलाकासमूहको स्वयंभूरमणसमुद्रकी खण्डशलाकाओंभेसे घटादेनेपर वृद्धिका प्रमाण कितना है, ऐसा कहनेपर अट्ठानबै हजार करोड़ योजनोंसे भाजित जगश्रेणीके वर्गसे अतिरिक्त सात लाख योजनोंसे भाजित तीन १द ब वद्धिं पुहदी. TP. 73 २ द ब धादइसंडसलागाणं. Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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