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________________ ५६८ ] तिलोय पण्णत्ती [ ५.२४८ इच्छियदीवुवहीणं' बाहिरसूइस्स अद्धमेत्तम्मि । आइमसूई सोधसु ज सेसं तं च परिबड्डी ॥२४८ इच्छवी मदीवोहीण संपिंडं । सगसगआदिमसूइस्सद्धं लवणादिचरितं ॥ २४९ तदियपक्खे अप्पा बहुगं वत्तइस्लामो- - लवणसमुहस्स एयदिसरुंदादो कालोदगसमुहस्स एयदिसरुंदवडी छलक्खेण॰भहियं होदि । कालोदगसमुहस्स एयदिसरुंदादो पोक्खरवरसमुहस्स एयदि दबड्डी चवीस लक्खेण भहियं होदि । एवं कालोदगसमुप्पहुदि विवक्खिदतरंगिणीरमणादो तदणंतरोवरमणीररासिस्स एयदिसरुंदवडी चउग्गुणं होदूण गच्छइ जाव सयंभूरमणसमुहं ति । तस्स अंतिमवियप्पं वत्तहस्पामो - महिंदवरसायरस एयदिस रुंदा दो सयं भूरमणसमुहस्स एयदिसरुंदवड्डी बारसुत्तरसएण भजिदगुणसेडीओ पुण छप्पण्ण सहस्स दुसदपण्णास जोयणेहिं अब्भहियं होदि तस्स उवणा । एदस्स धणओयणाणि ५६२५० | तम्बडीणं आणयणसुत्तगाहा - ११३ इच्छित द्वीप समुद्रोंकी बाह्य सूचीके अर्थ प्रमाणमेंसे आदिम सूचीको घटा देनेपर जो शेष रहे उतना उस वृद्धिका प्रमाण है || २४८ ॥ उदाहरण – कालोद समुद्र के विस्तार में वृद्धि - का. स. बा. सूची यो. २९ लाख ÷ २ = १४५००००; १४५००० १३ लाख ( आ. सू. ) १५०००० वृद्धि । समुद्र से लेकर अन्तिम समुद्र तक इच्छित द्वीप या समुद्रसे अवस्तन ( पहिले के ) द्वीप समुद्रों का सम्मिलित विस्तार अपनी अपनी आदिम सूची के अर्धभागमात्र होता है ॥ २४९ ॥ उदाहरण - पुष्करद्वीप से पहिले के द्वीप - समुद्रोंका विस्तार- पुं. द्री. आ. सूची यो. २९ लाख ÷ २ १४५००००। == तृतीय पक्ष में अपको कहते है - लवणसमुद्रके एक दिशासम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा कालोदकसमुद्रके एक दिशासम्बन्धी विस्तारकी वृद्धि छह लाख योजन अधिक है । कालोदकसमुद्र के एक दिशासम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा पुष्करवरसमुद्रके एक दिशासम्बन्धी विस्तारकी वृद्धि चौबीस लाख योजन अधिक है । इस प्रकार कालोदकसमुद्र से लेकर स्वयम्भूरमण समुद्रपर्यन्त विवक्षित समुद्र के विस्तारकी अपेक्षा उसके अनन्तर स्थित अग्रिम समुद्रके एक दिशासम्बन्धी विस्तार में उत्तरोत्तर चौगुणी वृद्धि होती गई है । उसके अन्तिम विकल्पको कहते हैं । अहीन्द्रवर समुद्रके एक दिशासम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा स्वयंभूरमणसमुद्र के एक दिशासम्बन्धी विस्तार में एक सौ बारह से भाजित तिगुणी जगश्रेणियां और छप्पन हजार दो सौ पचास योजनप्रमाण वृद्धि हुई है । उसकी स्थापना इस प्रकार है- जग श्रेणी×३÷११२+यो. ५६२५० । । १ द दीओबहीणं. २ द च तं सेसं तत्र ३ व दीवउवहीदो, व दीवोवहीदो ४ व दीवावहीन. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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