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________________ -५. १८०] पंचमो महाधियारो [५५१ पुग्वोदिदणामजुदा एदे बत्तीस रुचकवरकूड़ा । तेसु य दिसायकण्णा ताई चिय ताण णामाणि ॥ १७२ होंति हु ईसाणादिसु विदिसासुंदोण्णि दोण्णि वरकूडा। वेरुलियमणीणामा रुचका रयणप्पहाणामा॥ ११ रयणं च संखरयणा रुचकुत्तमरयणउच्चका कूडा। एदे पदाहिणेणं पुम्वोदिदकूडसारिच्छा ॥ १७४ तेसु दिसाकण्णाणं महत्तरीओ कमेण णिवसंति । रुचका विजया रुचकामा वइजयंति रुचककता ॥ १७५ तह य जयंती रुचकुत्तमा य अपराजिदा जिणिंदस्स । कुवंति जातकम्मं एदाओ परमभत्तीए ॥ १७६ विमला णिचालोका सयपहा तह य णिचउज्जोवा । चत्तारो वरकूडा पुष्वादिपदाहिणा होति ॥ १७७ तक्कूडब्भंतरए चत्तारि भवंति सिद्धवरकूडा । पुन्वादिसु पुश्वसमा अंजणजिणगेहसरिसजिणगेहा ।। १७८ पाठान्तरम् । जंबूदीवाहितो संखेजाणिं पयोधिदीवाणिं । गंतूण आथि अण्णो जंबूदीओ परमरम्मो ॥ १७९ तत्थ वि विजयप्पहुदिसु भवंति देवाण दिग्वणयरीओ'। उवरिं वजखिदीए चित्तामज्मम्मि पुष्वपहुदीसुं॥ १८० । ये बत्तीस रुचकवरकूट पूर्वोक्त नामोंसे युक्त हैं । इनपर जो दिक्कन्यायें रहती हैं, उनके नाम भी वे (पूर्वोक्त ) ही हैं ॥ १७२॥ ___वैडूर्य, मणिप्रभ, रुचक, रत्नप्रभ, रत्न, शंखरत्न ( सर्वरत्न ), रुचकोत्तम और रत्नोच्चय, इन पूर्वोक्त कूटोंके सदृश कूटोंमें दो दो उत्तम कूट प्रदक्षिणक्रमसे ईशानादि विदिशाओंमें स्थित हैं ॥ १७३-१७४॥ ___ इन कूटोंपर क्रमसे रुचका, विजया, रुचकाभा, वैजयन्ती, रुचककान्ता, जयन्ती, रुचकोत्तमा और अपराजिता, ये दिक्कन्याओंकी महत्तरियां ( प्रधान) निवास करती हैं । ये सब उत्कृष्ट भक्तिसे जिनेन्द्रभगवान्के जातकर्मको किया करती हैं ॥ १७५-१७६ ॥ ___विमल, नित्यालोक, स्वयंप्रभ तथा नित्योद्योत, ये चार उत्तम कूट पूर्वादिक दिशाओंमें प्रदक्षिणरूपसे स्थित हैं ॥१७७॥ इन कूटोंके अभ्यन्तर भागमें चार सिद्धवर कूट हैं, जिनके ऊपर पहिलेके ही समान अंजनपर्वतस्थ जिनभवनोंके सदृश जिनालय स्थित हैं ॥१७८ ॥ पाठान्तर । ___ जम्बूद्वीपसे आगे संख्यात समुद्र व द्वीपोंके पश्चात् अतिशय रमणीय दूसरा जम्बूद्वीप है ॥१७९॥ वहांपर भी वज्रा पृथिवीके ऊपर चित्राके मध्यमें पूर्वादिक दिशाओंमें विजयप्रभृति देवोंकी दिव्य नगरियां हैं ।। १८० ॥ १दब ईसाणदिसा २ द बेलुरिय पयणि णामा, ब वेरुलिय पयणि णामा. ३द व उच्छका. ४द बरचकाय. ५व 'नयरी. ६९ उवरिम. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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