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________________ -५. १६४] पंचमो महाधियारो [५४९ विजय च वइजयंतं जयंतमपराजिदं च कुंडलयं । रुजगक्खरयणकूडाणि सव्वरयण त्ति उत्तरदिसाए॥१५६ एदे वि अट्ट कूडा सारिच्छा होति पुब्बकूडागं । तेसु पि दिसाकण्णा अलंबुसामिस्सकेसीओ ॥ १५७ तह पुंडरीकिणी वारुणि त्ति आसा य सच्चणामा य । हिरिया सिरिया देवी एदाओ चमरधारीओ ॥ १५८ एदाणं वेदीण अभंतरचउदिसासु चत्तारि । महकूडा चेटुंते पुब्बोदिदकूडसारिच्छा ॥ १५९ णिच्चुज्जोवं विमलं णिच्चालोयं सयपहं कृई । उत्तरपुव्वदिसासु दक्षिणपच्छिमदिसासु कमा ॥ १६० सोदाविणि त्ति कणया सदपददेवी य कणयचेत्त त्ति । उज्जोवकारिणीओ दिसासु जिगजम्मकल्लाणे ॥ १६१ तक्कूडब्भंतरए कूडा पुन्वुत्तकूडसारिच्छा । वेरुलियरुचकमणिरजउत्तमा पुवपहुदीसु ॥ १६२ तेसु पि दिसाकण्णा वसंति रुचका तहा रुचककित्ती। रुचकादीकंतपहा जागति जिगजातकम्माणि ॥ १६३ पल्लपमाणाउठिदी पत्तेक्कं होदि सयलदेवीणं । सिरिदेवीए सरिच्छा परिवारा ताण णादचा ॥ १६४ विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित, कुण्डलक, रुचक, रत्नकूट और सर्वरत्न, ये आठ कूट उत्तरदिशामें स्थित हैं ॥ १५६ ।। ये भी आठ कूट पूर्वकूटोंके ही सदृश हैं । इनके ऊपर भी अलंभूषा, मिश्रकेशी, पुण्डरीकिणी, वारुणी, आशा, सत्या, ही और श्री नामकी आठ दिक्कन्यायें निवास करती हैं । जिनजन्मकल्याणकमें ये सब चवरोंको धारण किया करती हैं ॥ १५७-१५८ ॥ इन कूटोंकी वेदियोंके अभ्यन्तर चार दिशाओंमें पूर्वोक्त कूटोंके सदृश चार महाकूट स्थित हैं ॥ १५९ ॥ नित्योद्योत, विमल, नित्यालोक और स्वयंप्रभ, ये चार कूट क्रमसे उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशामें स्थित हैं ॥ १६० ॥ सौदामिनी, कनका, शतपदा ( शतहदा ) और कनकचित्रा, ये चार देवियां इन कूटोंपर स्थित होती हुई जिनजन्मकल्याणकमें दिशाओंको निर्मल किया करती हैं ॥१६१ ॥ इन कूटोंके अभ्यन्तर भागमें पूर्वोक्त कूटोंके सदृश वैडूर्य, रुचक, मणि और राज्योत्तम नामक चार कूट पूर्वादिक दिशाओंमें स्थित हैं ॥ १६२ ॥ उन कूटोंपर भी रुचका, रुचककीर्ति, रुचककांता और रुचकप्रभा, ये चार दिक्कन्यायें निवास करती हैं । ये कन्यायें जिनभगवान्के जातकोंको जानती हैं ॥ १६३ ॥ इन सब देवियों से प्रत्येककी आयु एक पल्यप्रमाण होती है। उनके परिवार श्रीदेवीके समान जानना चाहिये ॥ १६४ ॥ १ब चरम. २दव देवीणं. ३द ब मणिरजउत्तमपउमस्स पहुदीसु. ४दब जणति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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