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________________ तिलोयपण्णत्ती [५. १२९छोयविणिच्छयकत्ता कुंडलसेलस्स वण्णणपयारं । अवरेण सरूवेणं वक्खाणइ तं परूवेमो ॥ १२९ मणुसुत्तरसमवासो बादालसहस्सजोयणुच्छेहो। कुंडलगिरी सहस्संगाढो बहुरयणकयसोहो ॥ १३० कूडाणं ताई चिय णामाई माणुसुत्तरगिरिस्स । कूडेहिं सरिच्छाणं णवरि सुराणं इमेणामा ॥ १३१ पुष्वदिसाए विसिट्ठोपंचसिरोमहसिरोमहाबाहू । पउमो पउमुत्तरमहपउमो दक्खिणदिसाए वासुगिओ॥१३२ थिरहिदयमहाहिदया सिरिवछो सत्थिी ' य पच्छिमदो। सुंदरविसालणेत्तं पंडुयपंडुरा' य उत्तरए॥ १३३ एकपलिदोवमाऊ वररयणविभूसिंदंगरमणिज्जा । बहुपरिवारहिं जुदा ते देवा होंति णागिंदा ॥ १३४ बहुविहदेवीहिं जुदा कूडोवरि तेसु भवणेसुं । णियणियविभूदिजोग्गं सोक्खं भुंजंति बहुभेयं ॥ १३५ पुम्वावरदिन्भायट्ठिदाण कूडाण अग्गभूमीए । एक्केका वरकूडा तडवेदीपहुदिपरियरिया ॥ १३६ जोयणसहस्सतुंगा पुह पुह तम्मेत्तमूलवित्थारा । पंचसयसिहररुंदा सगसयपण्णासमझवित्थारा ॥ १३७ १०००। ५००। ७५० । लोकविनिश्चयकर्ता कुण्डल पर्वतके वर्णनप्रकारका जो दूसरी तरहसे व्याख्यान करते हैं, उसका यहां निरूपण किया जाता है ॥ १२९॥ बहुत रत्नोंसे की गयी शोभासे सहित यह कुण्डल पर्वत मानुषोत्तर पर्वतके समान विस्तारवाला, ब्यालीस हजार योजन ऊंचा, और एक हजार योजनप्रमाण अवगाहसे सहित है ॥ १३०॥ - मानुषोत्तर पर्वतके कूटोंके सदृश इस पर्वतपर स्थित कूटोंके नाम तो वे ही हैं, परन्तु देवोंके नाम ये हैं- पूर्वदिशामें विशिष्ठ (त्रिशिर ), पंचशिर, महाशिर और महाबाहु; दक्षिणदिशामें पद्म, पद्मोत्तर, महापद्म और वासुकि; पश्चिममें स्थिरहृदय, महाहृदय, श्रीवृक्ष और स्वस्तिक; तथा उत्तरमें सुन्दर, विशालनेत्र, पाण्डुक और पांडुर, इस प्रकार ये सोलह देव उक्त क्रमसे उन कूटोंपर स्थित हैं ।। १३१-१३३ ॥ __ वे नागेन्द्र देव एक पल्योपममात्र आयुसे सहित, उत्तम रत्नोंसे विभूषित शरीरसे रमणीय, और बहुत परिवारोंसे युक्त होते हैं ॥ १३४॥ ये देव बहुत प्रकारकी देवियोंसे युक्त होकर कूटोंपर स्थित उन भवनोंमें अपनी अपनी विभूतिके योग्य बहुत प्रकारके सुखको भोगते हैं ॥ १३५॥ पूर्वापर दिग्भागमें स्थित कूटोंकी अग्रभूमिमें तटवेदी आदिकसे व्याप्त एक एक श्रेष्ठ कूट हैं ॥ १३६॥ .. ये कूट पृथक् पृथक् एक हजार योजन ऊंचे, इतनेमात्र मूलविस्तारसे सहित, पांच सौ योजनमात्र शिखरविस्तारवाले, और सात सौ पचास योजनप्रमाण मध्यविस्तारसे संयुक्त हैं ॥१३७॥ उत्सेध १००० । मूलविस्तार १००० । शिखरविस्तार ५०० । मध्यविस्तार ७५०। १९ व सिरिवंतो सकिओ. २द व हंडरपंडुरय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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