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तिलोयपण्णत्ती
[५. ११४
विविहाइ गच्चणाई वररयणविभूसिदाओ दिवाओ। कुन्वंते कण्णाओ' अंति जिणिंदस्स चरिदाणि ॥ ११४ जिणचरियणालयं ते घउन्विहाभिणयभंगिसोहिल्लं । आणंदेणं देवा बहुरसभावं पकुवंति ॥ ११५ एवं जेत्तियमेत्ता जिणिदणिलया विचित्तपूजाओ । कुवंति तेत्तिएसु णिभरभत्तीए सुरसंघा ॥ ११६ एक्कारसमो कोंडलगामो दीओ भवेदि रमणिज्जो । एदस्य य बहुमज्झे अस्थि गिरी कोंडलो ताम || ११७ पण्णत्तरी सहस्सा उच्छेहो जोयणागि तग्गिरिणो । एकसहस्सं गाढं जाणाविहरयणभरिदस्त ॥ ११८
७५०००।१०..1 वासो वि माणुसुत्तरवासादो दसगुणो पमाणेणं । तग्गिरिणो मूलोवरि तडवेदीपहुदिजुत्तस्स ॥ ११९
मू १०२२० । मज्झ ७२३० । सिहर ४२४० । उरि कुंडलगिरिणो दिव्वाणि हवंति वीस कूडाणिं । एदाणं विपणा भासेमी आणुपुब्धीए ॥ १२०
उत्तम रत्नोंसे विभूषित दिव्य कन्या विविध प्रकारके नृत्योंको करती हैं और अन्तमें जिनेन्द्र भगवान्के चरितों ( का अभिनय ) करती हैं ॥ ११४ ॥
वे चार प्रकारके देव आनन्दके साथ अभिनयके प्रकारोंसे शोभायमान बहुत प्रकारके रस-भाववाले जिनचरित्रसंबन्धी नाटक करते हैं । ११५ ॥
इस प्रकार नन्दीश्वरद्वीपमें जितने जिनेन्द्रमन्दिर हैं, उन सबमें देवगण गाढ़ भक्तिसे विचित्र पूजाएं करते हैं ॥ ११६ ॥
__ ग्यारहवां रमणीय कुण्डल नामक द्वीप है । इसके बहुमध्यभागमें कुण्डल नामक पर्वत है ॥ ११७॥
नाना प्रकारके रत्नोंसे भरे हुए इस पर्वतकी उंचाई पचत्तर हजार योजन और अवगाह एक हजार योजनमात्र है ॥ ११८॥ उत्सेध ७५००० । अवगाह १००० यो.। ___तटवेदी आदिसे संयुक्त इस पर्वतका विस्तार मूलमें व ऊपर मानुषोत्तर पर्वतके विस्तारप्रमाणसे दशगुणा है ॥ ११९ ॥
मूलव्यास १०२२० । मध्यव्यास ७२३० । उपरिव्यास ४२४० ।
कुण्डलगिरिके ऊपर जो दिव्य बीस कूट हैं, उनके विन्यासको अनुक्रमसे कहता हूं ॥१२॥
१द ब कण्णाहो. २द ब भत्तीसु सुरसंखा. ३ ब विण्णासे. ४ ब भासमो.
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