SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८] तिलोयपण्णत्ती [ १.१४१ मज्झम्हि पंच रज्जू कमसो हेटोवरिम्हि इगि रज्जू । सग रज्जू उच्छेहो होदि जहा तह य छेत्तर्ण ॥४॥ हेट्ठोवरिदं मेलिदखेत्तायारं तु चरिमलोयस्स । एदे पुब्विल्लस्स य खेत्तोवरि ठावए पयदं ॥ १४२ उद्धियदिवडमुरवधजोवमाणो य तस्स आयारो। एक्कपदे सगबहलो चोइसरज्जूदवो तस्स ॥ १४३ तस्स य एक्कम्हि दए वासो पुवावरेण भूमिमुहे। सत्तेक्वपंचएक्का रज्जूवो मज्झहाणिचयं ॥ १४४ खेस्संठियचउखंडं सरिसट्ठाणं आई घेत्तणं । तमणुज्झोभयपक्खे विवरीयकमेण मेलिज्जो ॥ १४५ एजिय अवसेसे खेत्ते गहिऊण पदरपरिमाणं । पुवं पिव कादूणं बहलं बहलम्मि मेलिज्जो ॥१४६ एवमवलेसखेत्तं जाव समप्पेदि ताव घेत्तब्वं । एक्कक्कपदरमाणं एक्कक्कपदेसबहलेणं ॥ १४७ एदेण पयारेणं णिप्पण्णत्तिलोयखेत्तदीहत्तं । वासउदयं भणामो णिस्संद दिढ़िवादादो ॥ १४८ सेढिपमाणायामं भागेसु दक्खिणुत्तरेसु पुढं । पुवावरेसु वासं भूमिमुहे सत्त येकपंचेक्का ॥ १४९ -1-1-11५। । जिस प्रकार मध्यमें पांच राजु, नीचे और ऊपर क्रमसे एक राजु और उंचाई सात राजु हो, इसप्रकार खण्डित करनेपर नीचे और ऊपर मिले हुए क्षेत्रका आकार अन्तिम लोक अर्थात् ऊर्ध्वलोकका आकार होता है । इसको पूर्वोक्त क्षेत्र अर्थात् अधोलोकके ऊपर रखनेपर प्रकृतमें खड़े किये हुए ध्वजयुक्त डेढ मृदंगके सदृश उस सम्पूर्ण लोकका आकार होता है । इसको एकत्र करनेपर उस लोकका बाहल्य सात राजु और उंचाई चौदह राजु होती है ॥ १४१-१४३ ॥ ___ इस लोककी भूमि और मुखका व्यास पूर्व-पश्चिमकी अपेक्षा एक ओर क्रमशः सात, एक, पांच और एक राजुमात्र है, तथा मध्यमें हानि-वृद्धि है ॥ १४४॥ आकाशमें स्थित चारों सदृश आकारवाले खण्डोंको ग्रहण करके उन्हें विचारपूर्वक उभय पक्षमें विपरीत क्रमसे मिलाना चाहिये । इसीप्रकार अवशेष क्षेत्रोंको ग्रहण करके और पूर्वके समान ही प्रतरप्रमाण करके बाहल्यको बाहल्यमें मिलादे । इस क्रमसे जबतक अवशिष्ट क्षेत्र समाप्त न हो जाय, तबतक एक एक प्रदेश बाहल्यरूप एक एक प्रतरप्रमाणको ग्रहण करना चाहिये ॥ १४५-१४७ ॥ ___ इसप्रकारसे सिद्ध हुए त्रिलोकरूप क्षेत्रकी मुटाई, चौड़ाई और उंचाईका हम वैसा ही वर्णन करते हैं जैसा कि दृष्टिवाद अंगसे निकला है ॥ १४८॥ दक्षिण और उत्तर भागमें लोकका आयाम जगश्रेणीप्रमाण अर्थात् सात राजु है, पूर्व और पश्चिम भागमें भूमि तथा मुखका व्यास क्रमसे सात, एक, पांच और एक राजु है । तात्पर्य यह है कि लोककी मुटाई सर्वत्र सात राजु है, और विस्तार क्रमशः अधोलोकके नीचे सात राजु, मध्यलोकमें एक राजु, ब्रह्मस्वर्गपर पांच राजु और लोकके अन्तमें एक राजु है ॥ १४९ ॥ राजु. ७ ७१॥ ५॥ १ १ द उब्भियदिवडरवद्ध'. २ द ब सव्वलो. ३ ब अइ. ४ [एवं चिय]. ५ द व समं पेरि. ६ द ब णिस्सई. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy