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________________ -१. १५५] पढमो महाधियारो [ १९ ( चोद्दसरज्जुपमाणो उच्छेहो होदि सयललोगस्स । अद्वमुरजस्सुदवो समैग्गमुरवोदयसरि च्छो ॥ १५०) १४1-1- हेटिममज्झिमउवरिमलोउच्छेहो कमेण रज्जूवो । सत्त य जोयणलक्खं जोयणलक्खूणसगरज्जू ॥ १५१ जो. १०००००। ७ रिण जो. १००००। (इह रयणसक्करावालुपंकधूमतममहातमादिपहा । मुरबद्धम्मि महीओ सत्त श्चिय रज्जुअन्तरिया ॥ १५२ घम्मावंसामेघाअंजणरिहाणउब्भमघवीओ। माघविया इय ताणं पुढवीणं गोत्तणीमाणि ॥ १५३ ) (मज्झिमजगस्स हेट्ठिमभागादो णिग्गदो पढमरज्जू । सक्करपहपुढवीए हेट्ठिमभागम्मि णिट्ठादि ॥ १५४ तत्तो दोइदरज्जू वालुवपहहेटि समप्पेदि । तह य तइजा रज्जू पंकपहहेटुस्स भागम्मि ॥ १५५ ___ सम्पूर्ण लोककी उंचाई चौदह राजुप्रमाण है । अर्ध मृदंगकी उंचाई सम्पूर्ण मृदंगकी उंचाईके सदृश है अर्थात् अर्ध मृदंगसदृश अधोलोक जैसे सात राजु ऊंचा है, उसीप्रकार पूर्ण मृदंगके सदृश ऊर्ध्वलोक भी सातही राजु ऊंचा है ॥ १५०॥ क्रमसे अधोलोककी उंचाई सात राजु, मध्यलोककी उंचाई एक लाख योजन और ऊर्ध्वलोककी ऊंचाई एक लाख योजन कम सात राजु है ॥ १५१ ॥ अ. लो. ७ रा. । म. लो. १००००० यो. । ऊ. लो. रा. ७ ऋण १००००० यो. । ___ इन तीनों लोकोंमेंसे अर्धमृदंगाकार अधोलोकमें रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, और महातमःप्रभा, ये सात पृथिवियां एक एक राजुके अन्तरालसे हैं ॥ १५२ ।। विशेषार्थ----ऊपर प्रत्येक पृथिवीके मध्यका अन्तर जो एक राजु कहा है, वह सामान्य कथन है । विशेषरूपसे विचार करनेपर पहली और दूसरी पृथिवीकी मुटाई एक राजुमें शामिल है, अतएव इन दोनों पृथिवीयोंका अन्तर दो लाख बारह हजार योजन कम एक राजु होगा । इसीप्रकार आगे भी पृथिवियोंकी मुटाई प्रत्येक राजुमें शामिल है, अतएव मुटाईका जहां जितना प्रमाण है, उतना उतना कम एक राजु वहां अन्तर जानना चाहिये। ____घर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी, और माधवी, ये इन उपर्युक्त पृथिवियोंके गोत्र. नाम हैं ॥ १५३ ॥ __ मध्यलोकके अधोभागसे प्रारम्भ होकर पहिला राजु शर्कराप्रभा पृथिवीके अधोभागमें समाप्त होता है ॥ १५४ ॥ रा. १. इसके आगे दूसरा राजु प्रारम्भ होकर बालुकाप्रभाके अधोभागमें समाप्त होता है, तथा तीसरा राजु पंकप्रभाके अधोभागमें समाप्त होता है ॥ १५५ ॥ रा.२।३। १५ सामग्ग'. २ ब गात्त'. ३ दब सकरसेह. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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