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________________ -१. ९४ ] पढमो महाधियारो [११ सामग्णजगसरूवं तम्मि ठियं णारयाण लोयं च । भावणणरतिरियाणं वेंतरजोइसियकप्पवासीणं ॥८८ सिद्धार्ण लोगो त्ति य' अहियारे पयददिट्रणवभेए । तम्मिणिबद्ध जीवे पसिद्धवरवण्णणासहिए ॥ ८९ वोच्छामि लयलईए भव्वजणाणंदपसरसंजणणं । जिणमुहकमलविणिग्गयतिलोयपपणत्तिणामाए ॥ ९० जगसेढिघणपमाणो लोयायासो सपंचदव्यरिदी । एस अणंताणंतालोयायासस्स बहमज्झे ॥ ९१ = १६ ख ख ख"।। जीवा पोग्गलधम्माधम्मा काला इमाणि दव्वाणि । सव्वं लोयायासं आधुदय पंच चिट्रेति ॥ ९२ एत्तो सेढिस्स घणप्पमाणाण णिण्णयरं परिभासा उरचदेपल्लसमुद्दे उवमं अंगुलयं सूइपदरघणणामं । जगसेढिलोयपदरी अ लोओं अटुप्पमाणाणि ॥ ९३ प०१ । सा० २। सू०३ । प्र. ४ । घ० ५। ज० ६ । लोकप्र० ७ । लोय ८ । ववहारुद्वारद्धा तियपल्ला पढमम्मि संखाओ। विदिए दीवसमुद्दा तदिए मिज्जेदि कम्मठिदी ॥ ९४ सामान्य जगत्का स्वरूप, उसमें स्थित नारकियोंका लोक, भवनवासी, मनुष्य, तिर्यंच, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी और सिद्धोंका लोक, इस प्रकार प्रकृतमें उपलब्ध भेदरूप नौ अधिकारों, तथा उस उस लोकमें निबद्ध जीवोंको, नयविशेषोंका आश्रय लेकर उत्कृष्ट वर्णनासे युक्त, भव्यजनोंको आनन्दके प्रसारका उत्पादक और जिनभगवान्के मुखरूपी कमलसे निकले हुए इस त्रिलोकप्रज्ञप्तिनामक ग्रंथकेद्वारा कहता हं॥८८-९० ॥ अनन्तानन्त अलोकाकाशके बहुमध्यभागमें स्थित, जीवादि पांच द्रव्योंसे व्याप्त और जगश्रेणिक धनप्रमाण यह लोकाकाश है ॥ ९१ ॥ = १६ ख ख ख । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल, ये पांचों द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाशको व्याप्त कर स्थित हैं ॥ ९२ ॥ अब यहांसे आगे श्रेणिके घनप्रमाण लोकका निणय करनेके लिये परिभाषाएं अर्थात् पल्योपमादिका स्वरूप कहते है- पल्योपम, सागरोपैम, सूच्यगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगंश्रेणि, लोकऍतर और लोक, ये आठ उपमाप्रमाणके भेद हैं ॥ ९३ ॥ प. १ । सा. २ । सू. ३ । प्र. ४ । घ. '५ । ज. ६ । लोक प्र. ७ । लो. ८॥ व्यवहारपल्य, उद्धारपल्य, और अद्धापल्य, ये पल्यके तीन भेद हैं। इनमें प्रथम पल्यसें संख्या, द्वितीयसे द्वीप-समुद्रादिक और तृतीयसे कोंकी स्थितिका प्रमाण लगाया जाता है । ९४ ।। १बअहिआरो.२ वलयं =नयविशेषम्, द वोच्छामि सयलाईए,३७ जणाणंदए सरसं.४ दिव्वठिदो. ५ द ख ख ख ४२.६ द व लोयायासो. ७ द. आउवडिदिआधूइय. ८ द व चरंति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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