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________________ १०] तिलोयपण्णत्ती [१. ७८ विमले गोदमगोत्ते जादेणं 'इंदभूदिणामेण । चउवेदपारगेण सिस्सेण विसुद्धसीलेण ॥ ७८ भावसुदपजयहिं परिणदमयिणा अ बारसंगाणं । चोइसपुब्वाण तहा एक्कमुहुत्तेण विरचणा विहिदो ॥ ७९ इय मूलतंतकत्ता सिरिवीरो इंदभूदिविप्पवरो । उवर्तते कत्तारो अणुतते सेसआइरिया ॥ ८. णिण्णट्टरायदोसा महेसिणो "दिव्वसुत्तकत्तारो । किं कारणं पभणिदा कहिदुं सुत्तस्स पामण्णं ॥८॥ जो ण पमाणणयेहिं णिक्खेवेणं णिरक्खदे अत्थं । तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च पडिहादि ॥ ८२ णाणं होदि पमाणं णो वि णादुस्स हिदयभावस्थो । णिक्खेओ वि उवाओ जुत्तीए अस्थपडिगहणं॥८३ इय णायं अवहारिय आइरियपरंपरागदं मणसा। पुवाइरियाआराणुसरण तिरयणणिमित्तं ॥ ८४ मंगलपहदिच्छक्कं वक्खाणिय विविहगंथजुत्तीहिं। जिणवरमुहणिक्कंतं गणहरदेवहिं गथितपदमालं ॥८५ सासदपदमावणं पवाहरूवत्तणेण दोसेहिं । णिस्सेसेहि विमुक्कं आइरियअणुक्कमाभादं ॥ ८६ भब्वजणाणंदयरं वोच्छामि अहं तिलोयपण्णत्तिं। णिभरभत्तिपसादिदवरगरुचलणाणुभावेण ॥ ८७ भगवान्के चरण-मूलकी शरणमें आये हुए, निर्मल गौतम गोत्रमें उत्पन्न हुए, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग, इन चार घेदोंमें, अथवा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, इन चारों वेदोंमें पारंगत, विशुद्ध शीलके धारक, भावश्रुतरूप पर्यायसे नुद्धिकी परिपक्वताको प्राप्त, ऐसे इन्द्रभूतिनामक शिष्य अर्थात् गौतम गणधरद्वारा एक मुहूर्तमें बारह अंग और चौदह पूर्वोकी रचनारूपसे ग्रथित किया गया ॥७६-७९॥ इसप्रकार श्रीवीरभगवान् मूलतंत्रकर्ता, ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ इन्द्रभूति गणधर उपतंत्र-कर्ता, और शेष आचार्य अनुतंत्र-कर्ता हैं ॥ ८० ॥ गणधरदेव राग-द्वेषसे रहित होते हुए द्रव्यश्रुतके कर्ता हैं, यह कथन यहां किस कारणसे किया गया है ? सूत्रकी प्रमाणताका कथन करने के लिये ॥ ८१ ॥ ____ जो नय और प्रमाण तथा निक्षेपसे अर्थका निरीक्षण नहीं करता है, उसको अयुक्त पदार्थ युक्त और युक्त पदार्थ अयुक्त ही प्रतीत होता है ॥ ८२ ॥ सम्यग्ज्ञानको प्रमाण और ज्ञाताके हृदयके अभिप्रायको नय कहते हैं । निक्षेप उपायस्वरूप है । युक्तिसे अर्थका प्रतिग्रहण करना चाहिये ॥ ८३ ॥ इसप्रकार आचार्यपरंपरासे ज्ञात हुए न्यायको मनसे अवधारण करके पूर्व आचायोंके आचारका अनुसरण करना रत्नत्रयका कारण है ॥ ८४॥ विविध ग्रंथ और युक्तियोंसे मंगलादि छह अर्थात् मंगल, कारण, हेतु, प्रमाण, नाम और कर्ता, इनका व्याख्यान करके जिनेन्द्र भगवान् के मुखसे निकले हुए, गणधरदेवोंद्वारा पदोंकी, अर्थात् शब्दरचनारूप, मालामें गूंथे गये, प्रवाहरूपसे शाश्वतपद अर्थात् अनन्तकालीनता को प्राप्त, सम्पूर्ण दोषोंसे रहित, और आचार्यपरंपरासे आये हुए तथा भव्यजनों को आनन्ददायक 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति' शास्त्रको मैं अतिशय भक्तिद्वारा प्रसादित उत्कृष्ट गुरुके चरणोंके प्रभावसे कहता हूं ॥ ८५-८७ ॥ १ ब यंदभूदि°, २ ब मिस्सेण. ३ [ परिणदमइणा य ]. ४ [ विहिदा ]. ५ [दव्यसुत्त०] ६ द ब सामग्णं, ७ बणउ वि णादुसह हिदयभावत्थो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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