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________________ --१. ७७] पढमो महाधियारो एस्थावसविणीए चउत्थकालस्स चरिमभागम्मि । तेत्तीसवासअडमासपण्णरसदिवससेसम्मि ॥ ६८ वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए। अभिजीणक्खत्तम्मि य उप्पत्ती धम्मतित्थस्स ॥ ६९ सावणबहले पाडिवरुद्दमुहुत्ते सुहोदये रविणो | अभिजस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढे ॥ ७० णाणावरणप्पहुदिआणिच्छयववहारपायअतिसयए । संजादेण अणतंणाणेणं दसणसुहाई॥७१ विरिएण तहा खाइयसम्मत्तेणं पि दाणलाहहिं । भोगोपभोगणिच्छयववहारोह च परिपुण्णो ॥ ७२ दसणमोहे णटे धादित्तिदए चरित्तमोहम्मि । सम्मत्तणाणदंसणवीरियचरियाइ होति खइयाई ॥ ७३ जादे भणतणाणे णटे छदुमट्ठिदियाम्मि" णाणम्मि । णवविहपदत्थसारा दिव्वझुणी कहइ सुत्तत्थं ॥ ७४ अण्णेहि अणतेहिं गणेहि जुत्ता बिसदाचारित्तो । भवभयभंजणदच्छो महवीरो अत्थकत्तारो॥ ७५ महवीरभासियत्थो तस्सि खेत्ताम्म तत्थ काले य । खायोवसमविवडिदचउरमलमईहि पुण्णेण ॥ ७६ लोयालोयाण तहा जीवाजीवाण विविहविसयेसु । संदेहणासणथं उवगदसिरिवीरचलणमूलेण ॥ .. यहां अवसर्पिणीके चतुर्थ कालके अन्तिम भागमें तेतीस वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहनेपर वर्षके श्रावणनामक प्रथम महिनेमें, कृष्ण पक्षकी प्रतिपदाके दिन अभिजित् नक्षत्रके उदित रहनेपर धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई ॥ ६८-६९॥ श्रावणकृष्णा पडिवाके दिन रुद्रमुहूर्त के रहते हुए सूर्यका शुभ उदय होनेपर अभिजित् नक्षत्रके प्रथम योगम इस युग का प्रारंभ हुआ, यह स्पष्ट है ॥ ७० ॥ ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोंके निश्चय और व्यवहाररूप विनाशके कारणोंकी प्रकर्षता होनेपर उत्पन्न हुए अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य, इन चार अनन्तचतुष्टय, तथा क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग और क्षायिकउपभोग, इसप्रकार नव लब्धियोंके निश्चय एवं व्यवहारस्वरूपोंसे परिपूर्ण हुए ॥७१-७२ ॥ दर्शनमोह, तीन घातिया ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय ) और चारित्रमोहके नष्ट होनेपर क्रमसे सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य और चारित्र, ये पांच क्षायिक भाव प्राप्त होते हैं ।।७३ । अनन्तज्ञान अर्थात् केवलज्ञानकी उत्पत्ति और छमस्थ अवस्थामें रहनेवाले मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्ययरूप चार ज्ञानोंका अभाव होनेपर नौ प्रकारके पदार्थोंके सारको विषय करनेवाली दिव्यध्वनि सूत्रार्थको कहती है ॥ ७४ ॥ इसके अतिरिक्त और भी अनन्त गुणोंसे युक्त, विशुद्ध चारित्रके धारक और संसारके भयको नष्ट करनेमें दक्ष श्रीमहावीर प्रभु ( भावकी अपेक्षा ) अर्थकर्ता हैं ॥ ७५ ॥ भगवान् महावीरके द्वारा उपदिष्ट पदार्थस्वरूप, उसी क्षेत्र और उसी कालमें, ज्ञानावरणके विशेष क्षयोपशमसे वृद्धिको प्राप्त निर्मल चार बुद्धियों ( कोष्ठ, बीज, संभिन्न-श्रोतृ और पदानुसारी ) से परिपूर्ण, लोक, अलोक और जीवाजीवादि विविध विषयोंमें उत्पन्न हुए संदेहको नष्ट करनेके लिये श्रीवीर १ द व सुद्दमुहुत्ते. २ व सुहोदिए. ३ द आदीइ यिमस्स.४ व परपुण्णो. ५ द ब चदुमट्ठिदिदम्मि. ६ बचउउर'. TP.2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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