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तिलोयपण्णत्ती
[ १.५८
णिभूसणायुधंबरभीदी सोम्माणणादिदिग्वतणू । अटुभहियसहस्सप्पमाणवरलक्खणोपेदो ॥ ५८
चउविहउवसग्गेहि णिच्चविमुक्को कसायपरिहीणो । छुहपहुदिपरिसहेहिं परिचत्तो रायदोसेहिं ॥ ५९ जोयणपमाणसंठिदतिरियामरमणुवणिवहपडिबोहो । मिदुमधुरगभीरतराविसदविसयसयलभासाहि ॥ ६० अट्ठरस महाभासा खुल्लयभासा वि सत्तसयसंखा । अक्खरअणक्खरप्पय सण्णीर्जावाण सयलभासाओ ॥ ६१ एदासिं भासाणं तालुवदंतोटकंठवावारं । परिहरिय एक्ककालं भव्वजणाणंदकरभासो ॥ ६२ भावणवेंतरजोइसियकप्पवासेहि केसवबलेहि । विजाहरोहिं चक्किप्पमुहहिं णरेहिं तिरिएहिं ॥६३ एदेहि अण्णेहिं विरचिदचरणारविंदजुगपूजो । दिट्ठसयलट्ठसारो महवीरो अत्थकत्तारो ॥ ६४ सुरखेयरमणहरणे गुणणामे पंचसेलणयरम्म' । विउलभिम पव्वदवरे वीरजिणो अट्ठकत्तारो ॥ ६५ चउरस्सो पुवाए रिसिसेलो दाहिणाए वेभारो। णइरिदिदिसाए विउलो दोणि तिकोणट्टिदायारा ॥ ६६) चावसरिच्छो छिण्णा वरुणाणिलसोमदिसविभागेसु । ईसाणाए पंडू वण्णा सब्वे कुसग्गपरियरणा ॥ ६७
सुगन्धके धारक हैं, जिनके रोम और नख प्रमाणसे स्थित हैं अर्थात् वृद्धिसे रहित हैं, जो भूषणआयुध, वस्त्र और भीतिसे रहित व सुन्दर मुखादिकसे शोभायमान दिव्य देहसे विभूषित हैं, शरीरके उत्तम एक हजार आठ लक्षणोंसे युक्त ह; देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन कृत चार प्रकारके उपसर्गोंसे सदा विमुक्त हैं, कषायोंसे रहित हैं, क्षुधादिक बाईस परीषहों व राग-द्वेषसे परित्यक्त हैं; मृदु, मधुर, अति गम्भीर और विषयको विशद करनेवाली भाषाओंसे एक योजनप्रमाण समवसरणसभामें स्थित तिर्यंच, देव और मनुष्योंके समूहको प्रतिबोधित करनेवाले हैं, संज्ञी जीवोंकी अक्षर और अनक्षररूप अठारह महाभाषा तथा सातसौ छोटी भाषाओंमें परिणत हुई और तालु, दन्त, ओठ तथा कण्ठके हलन-चलन रूप व्यापारसे रहित होकर एकही समयमें भव्यजनोंको आनन्द करनेवाली भाषा (दिव्यध्वनि ) के स्वामी हैं, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवों के द्वारा तथा नारायण बलभद्र, विद्याधर और चक्रवर्ती आदि प्रमुख मनुष्य, तिर्यंच और अन्य भी ऋषि-महर्षियोंसे जिनके चरणारविन्दयुगलकी पूजा की गयी है, और जिन्होंने सम्पूर्ण पदार्थोंके सारको देख लिया है, ऐसे महावीर भगवान् [ द्रव्यकी अपेक्षा ] अर्थागमके कर्ता है ॥ ५६-६४ ॥
देव और विद्याधरोंके मनको मोहित करनेवाले और सार्थक नामसे प्रसिद्ध पंचशैल [ पांच पहाडोंसे सुशोभित ] नगर अर्थात् राजगृही नगरीमें, पर्वतोंमें श्रेष्ठ विपुलाचल पर्वतपर श्रीवीरजिनेंद्र [ क्षेत्र की अपेक्षा ] अर्थ-शास्त्र के कर्ता हुए ॥ ६५ ॥
राजगृह नगरके पूर्वमें चतुष्कोण ऋषिशैल, दक्षिणमें वैभार और नैऋत्य दिशामें विपुलाचल पर्वत हैं । ये दोनों, वैभार और विपुलाचल, पर्वत त्रिकोण आकृतिसे युक्त ह ॥६६॥
पश्चिम, वायव्य और सोम [ उत्तर ] दिशामें फैला हुआ धनुषके आकार छिन्ननामका पर्वत है, और ईशान दिशामें पाण्डु नामका पर्वत है । उपर्युक्त पांचों ही पर्वत कुशाग्रोंसे वेष्टित हैं ॥ ६७॥
१ ब विसदयसमसयल'. २ द णययम्मि. ३ द ब सिरिसेलो.
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