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________________ -१. ५७] पढमो महाधियारो कणयधराधरधीरं मूढत्तयविरहिद हयट्टमलं' । जायदि पवयणपढणे सम्मईसणमणवमाणं ॥ ५॥ सरखेयरमणवाणं लभंति सुहाई आरिसब्भासा' । तत्तो णिन्वाणसुहं णिण्णासिदधातु णट्टमलं ॥ ५२ (हेदु गर्द) विविहत्यहि अणतं संखेनं अक्खराण गणणाए । एदं पमाणमुदिदं सिस्साणं मइविकासयरं ॥ ५३ पमाणं गदं। भग्वाण जेण एसा तेलोक्कपयासणे परमदीवा । तेण गुणणाममुदिदं तिलोयपण्णत्ति णामेणं ॥ ५४) ।णाम गर्द। कत्तारो दुवियप्पो णादव्वो अस्थगंथभेदेहिं । दन्वादिचउपयारोह भासिमो अत्थकत्ता ॥ ५५ सेदरजाइमलेणं रत्तच्छिकडक्खबाणमोक्खहि । इयपहुदिदेहदोसेहिं संततमदूसिदसरीरो ॥५६ आदिमसंहणणजुदो समचउरस्संगचारुसंठाणो । दिव्ववरगंधधारी पमाणठिदरोमणखरूवो ॥ ५७ प्रवचन अर्थात् परमागमके पढनेपर सुमेरुपर्वतके समान निश्चल; लोकमूढता, देवमूढता, गुरुमढता, इन तीन मूढताओंसे रहित, और शंका-कांक्षा आदि आठ दोषोंसे विमुक्त अनुपम सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है ॥५१॥ ___ आर्ष वचनोंके अभ्याससे देव, विद्याधर तथा मनुष्यों के सुखोंकी प्राप्ति होती है, और अन्तमें नोकर्ममलसे विहीन, तथा द्रव्यकर्म और उनसे सम्बन्ध रखनेवाले भावकर्मोसे भी रहित, इसप्रकार त्रिविध मलवर्जित मोक्षसुखकी भी प्राप्ति होती है ॥५२॥ इसप्रकार हेतुका कथन हुआ। श्रुत विविध प्रकारके अर्थोकी अपेक्षा अनन्त है, और अक्षरोंकी गणनाकी अपेक्षा संख्यात है। इसप्रकार शिष्योंकी बुद्धिको विकसित करनेवाला श्रुतप्रमाण कहा गया है ॥ ५३ ॥ इसप्रकार प्रमाणका वर्णन हुआ। क्योंकि यह शास्त्र भव्यजीवोंके लिये तीनों लोकोंके स्वरूपके प्रकाशित करनेमें दीपके समान है, इसीलिये 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति ' नामसे इसका यह गुणनाम कहा गया है ॥५४॥ इसप्रकार नामका कथन हुआ । अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ताके भेदसे कर्ता दो प्रकारके समझना चाहिये । इनमेंसे द्रव्यादिक चार प्रकारसे अर्थकर्ताका निरूपण करते हैं ॥ ५५॥ जिनका शरीर पसीना, रज (धूली) आदि मलसे तथा लाल नेत्र और परको दुख पहुंचानेवाले कटाक्ष-बाणोंका छोडना इत्यादि शरीरसम्बन्धी दूषणोंसे सदा अदूषित है, जो आदिके अर्थात् वज्रर्षभनाराच संहननसे युक्त हैं,समचतुरस्रसंस्थानरूप सुन्दर आकृतिसे शोभायभान हैं,दिव्य और उत्कृष्ट १द ब हयग्गमलं. २ द ब आरिसंभासा. ३द परमदीवं. ४ ब अत्थकत्तारो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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