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________________ २) तिलोयपण्णत्ती [ १. ७ मंगलकारणहेदू सत्थस्स पमाणणामकत्तारा। पढम चिय कहिदध्वा एसा आइरियपरिभासा ॥७) पुण्णं पूदपवित्ता पसत्थसिवभइखेमकल्लाणा। सुहसोक्खादी सम्वे णिहिट्ठा मंगलस्स पज्जाया ॥ 6 गालयदि विणासयदे घादेदि दहेदि हंति सोधयदे। विद्धंसेदि मलाई जम्हा तम्हा य मंगलं भणिदं ॥९ दोणि वियप्पा होति हु मलस्स इमं दब्वभावभेएहिं। दवमलं दुविहप्पं बाहिरमभंतरं चेय ॥ १० 'सेदमलरेणुकहमपहुदी बाहिरमलं समुद्दिटुं। पुणु' दिढजीवपदेसे णिबंधरूवाइ पयडिठिदिआई॥" "अणुभागपदेसाई चउहिं पत्तेक्कभेज्जमाणं तु। णाणावरणप्पहुदीअट्टविहं कम्ममखिलपावरयं ॥ १२ अभंतरदब्बमलं जीवपदेसे "णिबद्धमिदि हेदो। भावमलं णादम्वं अणाणदंसणादिपरिणामो ।। १३ अहवा बहुभेयगयं णाणावरणादिदब्वभावमलभेदा। ताई गालेइ पुढं जदो तदो मंगलं भणिदं ॥१४ अहवा मंगं सोक्खं लादि हु गेण्हेदि मंगलं तम्हा । एदेण कज्जसिद्धिं मंगइ गच्छेदि गंथकत्तारो॥ १५ पुवं आइरिएहिं मंगलपुन्वं च वाचिंद भाणदं । तं लादि हु आदत्ते जदो तदो मंगलं परं ॥ १६ शास्त्रके मङ्गल, कारण, हेतु, प्रमाण, नाम और कर्ता, इन छह अधिकारोंका वर्णन शास्त्रव्याख्यानसे पूर्व ही करना चाहिये; यह आचार्योकी परिभाषा या पद्धति है ॥ ७ ॥ पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ और सौख्य, इत्यादिक सब मङ्गलके ही पर्याय अर्थात् समानार्थक शब्द कहे गये हैं ॥ ८॥ __ क्योंकि यह मलोंको गलाता है, विनष्ट करता है, घातता है, दहन करता है, हनता है, शुद्ध करता है और विध्वंस करता है, इसीलिये इसे ' मङ्गल ' कहा गया है ॥९॥ द्रव्य और भावके भेदसे इस मलके दो भेद हैं । इनमेंसे द्रव्यमल भी दो प्रकारका है, एक बाह्य द्रव्यमल, और दूसरा आभ्यन्तर द्रव्यमल ॥१०॥ स्वेद, मल, रेणु (धूलि ), कर्दम ( कीचड ), इत्यादिक बाह्य द्रव्यमल कहा गया है। और दृढ रूपसे जीवके प्रदेशोंमें एक क्षेत्रावगाहरूप बंधको प्राप्त, तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश, इन चार बन्धके भेदोंसे हर एक भेदको प्राप्त होनेवाला ऐसा ज्ञानावरणादि आठ प्रकारका सम्पूर्ण कर्मरूपी पापरज चूंकी जीवके प्रदेशोंमें सम्बद्ध है, इस हेतुसे वह ( ज्ञानावरणादि कर्मरज ) आभ्यन्तर द्रव्यमल है । अज्ञान, अदर्शन इत्यादिक जीवके परिणामोंको भावमल समझना चाहिये ॥ ११-१३ ॥ अथवा, ज्ञानावरणादिक द्रव्यमलके और ज्ञानावरणादिक भावमलके भेदसे मलके अनेक भेद हैं, उन्हें चूंकि यह पृथक् गलाता है, अर्थात् नष्ट करता है, इसीलिये यह · मंगल ' कहा गया है ॥ १४ ॥ अथवा, चूंकि यह मंगको अर्थात् सुखको लाता है, इसीलिये भी इसे ' मंगल ' समझना चाहिये । इसीके द्वारा ग्रंथकर्ता अपने कार्यकी सिद्धिपर पहुंच जाता है ॥ १५ ॥ ___ पूर्वमें आचार्योद्वारा मङ्गलपूर्वक ही शास्त्रका पठन-पाठन हुआ है । उसीको निश्चयसे लाता है, अर्थात् ग्रहण कराता है, इसीलिये यह मंगल श्रेष्ठ है ॥ १६ ॥ १ द सीदजलरेणु. २ द पुण. ३ ब ठिदिआई, ४ द अणुभावपदेसाई. ५ बणिबंधमिदि. ६द गत्थेदिसिगंथ, ब मंगलगत्थेदि. ७ द वाचियं भणियं. संभवपाठ-पं. ४ इमे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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