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________________ जदिवसहाइरिय-विरइदा तिलोयपण्णत्ती [ पढमो महाधियारो] 'अट्टविहकम्मवियला णिट्रियकज्जा पणट्रसंसारा। दिसयलस्थसारा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥ १ घणघाइकम्ममहणा तिहुवणवरभव्वकमलमत्तंडा। अरिहा अणंतणाणे अणुवमसोक्खा जयंतु जए॥२ पंचमहन्वयतुंगा तक्कालियसपरसमयसुदधारा । णाणागुणगणभरिया आइरिया मम पसीदंतु ॥३ अण्णाणघोरतिमिरे दुरंततीरम्हि हिंडमाणाणं। भवियाणुज्जोययरा' उवज्झया वरमदि देंतु ॥ ४ थिरधरियसीलमाला ववगयराया जसोहपडहत्था । बहुविणयभूसियंगा सुहाइं साहू पयच्छंतु॥ ५ एवं वरपंचगुरू तियरणसुद्धण णमंसिऊणाहं । भग्वजणाण पदीवं वोच्छामि तिलोयपण्णतिं ॥६) जो आठ प्रकार के कर्मोसे विकल अर्थात् रहित हैं, करने योग्य कार्योंको कर चुके हैं अर्थात् कृतकृत्य हैं, जिनका जन्म-मरणरूप संसार नष्ट हो चुका है, और जिन्होंने सम्पूर्ण पदार्थोंके सारको देख लिया है, अर्थात् जो सर्वज्ञ हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी मेरे लिये सिद्धि प्रदान करें ॥ १॥ जो प्रबल घातिया कर्मोंका मंथन करनेवाले हैं, तीन लोकके उत्कृष्ट भव्य जीवनरूपी कमलों के विकसित करनेमें मार्तण्ड अर्थात् सूर्य के समान हैं, अनंतज्ञानी हैं, और अनुपम सुखका अनुभव करनेवाले हैं, ऐसे अरिहन्त भगवान् जगमें जयवन्त होवें ॥२॥ जो श्रेष्ठ पांच महाव्रतों से उन्नत हैं, तत्कालीन स्वसमय और परसमयस्वरूप श्रुतके धारण करनेवाले हैं, और नाना गुणोंके समूहसे भरपूर है, ऐसे आचार्य महाराज मुझपर प्रसन्न होवें ॥ ३ ॥ दुर्गम है तीर जिसका ऐसे अज्ञानरूपी घोर अन्धकारमें भटकते हुए भव्य जीवोंको ज्ञानरूपी प्रकाश प्रदान करनेवाले उपाध्याय परमेष्ठी मुझे उत्कृष्ट बुद्धि प्रदान करें ॥ ४॥ शीलव्रतोंकी मालाको दृढतापूर्वक धारण करनेवाले, रागसे रहित, अपने यश के समूहसे परिपूर्ण और विविध प्रकारके विनयसे विभूषित शरीरवाले साधु परमेष्ठी मुझे सुख प्रदान करें ॥५॥ ___ इस प्रकार म तीन करण अर्थात् मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक पाचों परमेष्ठियोंको नमस्कार करके भव्य जनोंके लिये दीपकके समान लोकके स्वरूपको दिखलानेवाले इस 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति' ग्रन्थको कहता हूं ॥६॥ १ ब ओं नमः सिद्धेभ्यः, द ओ नमः सिद्धेभ्यः २ [अनतणाणा ]. ३ द पसीयंतु ४ द तिमि रं र तिमिर- ५ द गुज्जोवयरा. ६ द दिंतु. ७ ब सिलामाला. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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