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________________ ४२८] तिलोयपण्णत्ती [ ४. २२४२ सीदातरंगिणीजलसंभवखुलंबुरासितीरम्मि । दिपंतकणयरयणा पट्टणदोणामुहा होति ॥ २२४२ सीदातरंगिणीए उत्तरतीरम्मि उवसमुदम्मि । छप्पण्णंतरदीवा समतवेदीपहदिजुत्ता ॥ २२४३ णाणारयणविणिम्मिदजिणिंदपासादभूसिदा रम्मा । मिच्छत्तभवणहीणा' गामप्पहुदी विरायते ॥ २२४४ (गोधूमकलमतिलजवउच्छुप्पहुदीहि धण्णसंपुण्णा । दुभिक्खमारिमुक्का णिच्चुच्छवतूरगीदरवा ॥ २२४५) केच्छविजयम्मि विविहा वणसंडा मंडिदा विचित्तेहिं । रुक्खहि कुसुमपल्लवफलभरसोहंत साहहि ॥ २२४६ पोक्खरणीवावीहिं विचित्तसोवाणरइददाराहि । सोहदि कच्छाविजओ कमलुप्पलवणसुगंधाहिं ॥ २२४७ कच्छम्मि महामेघा भमरंजणसामला महाकाया । सत्त वरिसंति वासारत्तेसुं सत्त सत्त दिवसाई ॥२२४८ वरिसंति दोणमेघा बारस कुंदेंदुसुंदरायारा । वीसुत्तरमेक्कसयं सरिवडणारे तत्थ जायति ॥ २२४९ बहुविहवियप्पजुत्ता खत्तियवइसाण तह य सुदाणं । वसा हवंति कच्छे तिण्णि चिय तत्थ ण हु अण्णे ॥२२५० सीतानदीके जलसे उत्पन्न हुए क्षुद्र समुद्रके किनारेपर देदीप्यमान सुवर्ण व रत्नोंसे सहित पत्तन और द्रोणमुख होते हैं ॥ २२४२ ॥ सीतानदीके उत्तरतटपर उपसमुद्रमें चारों ओर वेदीआदिसे सहित छप्पन अन्तरद्वीप होते हैं ॥ २२४३ ॥ नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित जिनेंद्रप्रासादोंसे विभूषित रमणीय वे प्रामादिक मिथ्यादृष्टियोंके भवनोंसे रहित होते हुए शोभायमान होते हैं ॥ २२४४ ॥ ये प्रामादिक गेहूं, चावल, तिल, जौ और ईख इत्यादि धान्योंसे परिपूर्ण, दुर्भिक्ष व मारीआदि रोगोंसे रहित तथा नित्य उत्सवमें होनेवाले तूर्य और गीतोंके शब्दोंसे सहित होते हैं ॥ २२४५ ॥ ___ कच्छाक्षेत्रमें फूल, पत्र व फलोंके भारसे शोभायमान शाखाओंवाले विचित्र वृक्षोंसे सुशोभित विविध प्रकारके वनखण्ड हैं ।। २२४६ ॥ यह कच्छादेश विचित्र सोपानोंसे रचित द्वारोंवाली और कमल व उत्पलवनोंकी सुगन्धसे सहित ऐसी पुष्करिणी व वापिकाओंसे शोभायमान है ।। २२४७ ॥ कच्छादेशमें भ्रमर व अंजनके समान काले सात महाकाय महामेघ सात सात दिन तक रात वर्षाकालीन रात्रियोंमें दिन बरसते हैं ॥ २२४८ ॥ कुन्दपुष्प और चन्द्रमाके समान सुन्दर आकारवाले बारह द्रोणमेघ भी बरसते हैं। वहां एकसौ बीस नदियों के प्रपात उत्पन्न होते हैं ॥ २२४९ ॥ कच्छादेशमें बहुत प्रकारके भेदोंसे युक्त क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रोंके तीन ही वंश हैं, अन्य वंश वहां नहीं हैं ।। २२५० ॥ १ द ब मिच्छभवणाणहीणा. २ द ब वण'. ३ द ब सरिवलगा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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