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________________ -४. २२२५ ] उत्थो महाधियारो पंचयजोयणाणि पुद्द पुछ वक्खारसेल विक्खंभो । णियणिय कुंडुपत्तिट्ठाणे कोलाणि पण्णासा ॥ २२१८ वासो विभंगकत्तीणदीण' सव्वाण होदि पत्तेक्कं । सीदासीदोदणई पवेसंदेसम्मि पंचसयकोसा ॥ २२१९ पुण्वावरेण जोयण उणतीससयाणि तह य बावीस | रुंदो देवारणे भूदारण्णे य पत्तेक्कं ॥ २२२० २९२२ । विजयगय दंतसरिया देवारण्णाणि भद्दसालवणं । नियणियफलेहिं गुणिदा कादव्वा मेरुफलजुत्ता ॥ २२२१ दाणं रचिणं पिंडफलं जोयणेक्कलक्खम्मि । सोधिय णियंकभजिदे जं लब्भइ तस्स सो वासो || २२२२ चडणवपणचउछक्का सोधिय अं कक्कमेण वासादो । सेसं सोलसभजिदं विजयाणं जाण विक्खभं ॥ २२२३ ६४५९४ । २२१२ । ७ । ८ छण्णउदिसहस्साणिं वासादो जोयणाणि अवणिज्जं । सेसं अट्ठविद्दत्तं वक्खार गिरीण विक्खंभो ॥ २२२४ ९६००० | ५०० । णवणउदिसहस्साणिं विक्खंभादो' य दुसयपण्णासा । सोधिय विभंगसरियावासो सेसस्स छन्भागे || २२२५ ९९२५० । १२५ । पृथक् पृथक् वक्षारशैलोंका विस्तार पांचसौ योजन और सब विभंगनदियोंमेंसे प्रत्येकका विस्तार अपने अपने कुण्डके पास उत्पत्तिस्थान में पचास कोस तथा सीता सीतोदा नदियों के पास प्रवेशस्थान में पांचसौ कोसप्रमाण है || २२१८-२२१९ ॥ देवारण्य और भूतारण्य मेंसे प्रत्येकका पूर्वापरविस्तार उनतीससौ बाईस योजन प्रमाण है ।। २२२० ।। २९२२ । [ ४२५ विजय, गजदन्त, नदी, देवारण्य और भद्रशाल, इनको अपने अपने फलोंसे ( क्रमशः १६, ८, ६, २, २ ) गुणा करके मेरुफलसे सहित करे । पश्चात् इनको जोड़ने पर जो प्रमाण प्राप्त हो उसको एक लाख योजनोंमेंसे घटा कर अपने अंकका भाग देनेपर जो लब्ध आवे, उतना उसका विस्तारप्रमाण होता है ।। २२२१-२२२२ ॥ चार, नौ, पांच, चार और छह, इन अंकोंके क्रमसे उत्पन्न हुई संख्याको जम्बूद्वीप के विस्तारमेंसे कम करके जो शेष रहे उसमें सोलहका भाग देनेपर क्षेत्रोंके विस्तारका प्रमाण जानना चाहिये ॥ २२२३ ॥ ( जं. वि. १००००० - ६४५९४ ) ÷ १६ = २२१२। छयानबे हजार योजनोंको जम्बूद्वीप के विस्तारमेंसे कम करके शेषको आठसे विभक्त करने पर वक्षारगिरियों का विस्तार निकलता है | २२२४ ॥ १००००० - ९६००० ) : ८ = ५०० | निन्यानबै हजार दोसौ पचासको जम्बूद्वीपके विस्तारमेंसे कम करके शेषके छह भाग करने पर विभंगनदियों का विस्तारप्रमाण जाना जाता है ।। २२२५ ॥ ( १००००० ९९२५० ) : ६ = १२५ । - १ द विभंगकत्तो णिलीण, ब विभंगतत्तो नदीण. २ द विक्खंभोदये. TP 54. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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