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________________ ४०२] तिलोयपण्णती [४. २००९मोरसुककोकिलाणं सारसहंसाण महुरसहई । विविहफलकुसुमभरिदं सुरम्मियं भइसालवणं ॥ २००९ बावीससहस्साणिं अडसीदिहिदाणि वासमेक्केके । पुवावरभाएसं वणम्मि' सिरिभदसालस्स ॥२०१० दोणि सया पण्णासा अट्ठासीदीविहत्तया रुंदा । दक्खिणउत्तरभागे एक्कक्के वणस्त भद्दसालम्मि ॥ २०११ वारणदंतसरिच्छा सेला चत्तारि मेरुविदिसासुं । वक्खार त्ति पसिद्धा अणाइणिहणा महारम्मा ॥ २०१२ णीलाद्दिणिसहपव्वदमंदरसेलाण होंति संलग्गा । वंकसरूवायामा ते चत्तारो महासेला ॥ २०१३ उत्तरदक्खिणभाए मंदरसेलस्स मज्झदेसम्मि । एक्केण पदेसेणं एक्कं तेण लग्गति ॥ २०१४ मंदरमणिलदिसादो सोमणसो णाम विज्जुपहणामो । कमसो महागिरी णं गंधमादणो मालवंतो य ॥ २०१५ ताणं रुप्पयतवणियकणयंवेरुलियसरिसवण्णाणं । उववणवेदिप्पहुदी सव्वं पुव्वोदिदं होदि ॥ २०१६ पंचसयजोयणाणि विस्थारो ताण दंतसेलाणं । सव्वत्थ होदि सुंदरकप्पतरुप्पण्णसोहाणं ॥ २०१७ णीलणिसहद्दिपासे चत्तारि सयाणि जोयणा होदि । तत्तो पदेसवड्डी पत्तेक मेरुसेलंतं ॥ २०१८ मोर, शुक, कोयल, सारस और हंस, इन पक्षियोंके मधुर शब्दोंसे व्याप्त तथा विविध प्रकारके फल-फूलोंसे भरित वह भद्रशालवन सुरम्य है ॥ २००९ ॥ पूर्व-पश्चिम भागोंमेंसे प्रत्येक भागमें श्रीभद्रशालवनका विस्तार अठासीसे भाजित बाईस हजार योजनप्रमाण है ॥२०१० ॥ दक्षिण-उत्तर भागोंमेंसे प्रत्येक भागमें भद्रशालवनका विस्तार अठासीसे विभक्त दोसौ पचास योजनप्रमाण है ॥ २०११॥ मेरुकी विदिशाओंमें हाथीदांतके सदृश, अनादिनिधन और महारमणीय ' वक्षार ' नामसे प्रसिद्ध चार पर्वत हैं ॥ २०१२ ॥ तिरछेरूपसे आयत वे चारों महाशैल नीलाद्रि, निषधपर्वत और मंदरशैलसे संलग्न हैं ॥२०१३ ॥ उनमेंसे प्रत्येक पर्वत उत्तर-दक्षिणभागमें मन्दरपर्वतके मध्यदेशमें एक एक प्रदेशसे उससे संलग्न हैं ॥ २०१४ ॥ क्रमसे मन्दरपर्वतकी वायव्यदिशासे लेकर सौमनस, विद्युत्प्रभ, गन्धमादन और माल्यवान् नामक चार महापर्वत हैं ॥ २०१५॥ __ क्रमशः चांदी, तपनीय, कनक और वैडूर्यमणिके सदृश वर्णवाले उन पर्वतोंकी उपवनवेदी आदिक सब पूर्वोक्त ही हैं ॥ २०१६ ॥ सुन्दर कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुई शोभासे संयुक्त उन दन्तशैलोंका विस्तार सर्वत्र पांचसौ योजन प्रमाण है ॥ २०१७॥ नील और निषध पर्वतके पासमें इनकी उंचाई चारसौ योजनप्रमाण है। इसके आगे मेरुपर्वतपर्यन्त प्रत्येक प्रदेशवृद्धि होती गई है । इसप्रकार प्रदेशवृद्धिके होनेपर अनुपम रूपको १ द ब वण्णमि. २ द ब महासेलो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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