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________________ -४. २००८ ] उत्थो महाधियारो एवं संखेवेणं दणणामं वर्ण मए भणिदं । एकमुहएक्कजीहो को सकछ वित्थरं भणिदं ॥ २००० दवणा हे पंचसया जोयणाणि गंतूणं । भट्ठासीदिवियप्पं चदृदि सिरिभद्दसालवणं ॥ २००१ ५०० । बावीस सहसाणि कमसो पुव्वावरेसु वित्थारो । तह दक्खिणुत्तरेसुं दुसया पण्णास तम्मि वणे || २००२ २२००० । २२००० । २५० । २५० । मेरुमहीधरपासे पुन्वदिसे दक्खिणवरउत्तरए । एक्केकं जिणभवणं होदि वरं भद्दसालवणे || २००३ पंडुवणपुराहिंतो चउग्गुणा वासउदयपहुदीओो । जिणवरपासादाणं पुन्वं पिव वण्णणं सव्वं ॥ २००४ तमिवणे वरतोरणसोद्दिदवरदार णिवहरमणिजा । अट्टालयादिसहिया समंतदो कणयमयवेदी || २००५ वेदीए उच्छेदो जोयणमेकं समंतदो होदि । कोदंडाण सहस्सं वित्थारो भइसालम्मि || २००६ जो १ । दं १००० । सिरिखंड-अगरु-केसर-असोय कप्पूर-तिलय-कदलीहिं । भइमुत्तमालई या हालिद्दपहुदीहिं संछष्णं ॥ २००७ पोक्खरणीरमणिज्जं सरवरपाला दणिवह सोहिलं । कूडेहिं जिणपुरोहेिं विराजदे भद्दसालवणं ॥ २००८ [ ४०१ इसप्रकार संक्षेपसे मैंने नन्दन नामक वनका वर्णन किया है। एक मुख और एक ही जिह्वा से सहित कौनसा मनुष्य उसका विस्तारसे वर्णन करने के लिये समर्थ है ? || २००० ॥ नन्दनवन के नीचे पांचसौ योजन प्रमाण जाकर अठासी विकल्पोंसे सहित श्रीभद्रशालवन स्थित है | २००१ ॥ ५०० ॥ ॥ उस वनका विस्तार क्रमसे पूर्व व पश्चिममें बाईस हजार योजन तथा दक्षिण व उत्तर में दोसी पचास योजनप्रमाण है | २००२ ॥ विस्तार पूर्व २२०००, पश्चिम २२०००, दक्षिण २५०, उत्तर २५० । भद्रशालवन में मेरुपर्वतके पास पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशामें एक एक उत्तम जिनभवन है || २००३ ॥ इन जिन भवनों का विस्तार व उंचाई आदि पाण्डुकवन के जिन भवनों की अपेक्षा चौगुणे हैं। शेष सब वर्णन पूर्वके ही समान है || २००४ ॥ उस वनके चारों ओर उत्तम तोरणोंसे शोभित श्रेष्ठ द्वारसमूहसे रमणीय और अट्टालिकादिसे सहित सुवर्णमय वेदी है | २००५ ॥ भद्रशालवन में वेदीकी उंचाई चारों तरफ एक योजन और विस्तार एक हजार धनुषप्रमाण है | २००६ ॥ उत्सेध यो. १ । विस्तार दं. १००० । श्रीखण्ड, अगरु, केशर, अशोक, कर्पूर, तिलक, कदली, अतिमुक्त, मालती और हारिद्रप्रभृति वृक्षोंसे व्याप्त; पुष्करिणियोंसे रमणीय तथा उत्तम सरोवर व भवनोंके समूहसे शोभायमान यह भद्रशालवन कूटों और जिनपुरोंसे विराजमान है । २००७-२००८ ॥ १ द ब णिरुव. TP. 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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