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________________ ३९६ ] तिलोयपण्णत्ती [ ४. १९५८ are य दिसाविभागे तेत्तीससुराण होंति तेत्तीसा । वरपीढाणि निरंतर फुरंतमणिकिरणणियराणि ॥ १९५८ ३३ । सिंहासणस्स पच्छिमभागे चेट्ठेति सत्त पीढाणिं । छक्कं महत्तराणं महत्तरीए हवे एकं ॥ १९५९ ७। सिंहा सणस्स चउसु विदिसासु चेद्वंति अंगरक्खाणं । चउरासीदिसहस्सा पीडाणि विचित्तरूवाणि ॥ १९६० ८४००० । सिंहासनम्मितस्सि पुण्वमुद्दे पइसिदूण सोहम्मो । विविहविणोदेण जुदो पेच्छइ सेवागदे देवे ' ॥ १९६१ भिंग भिंगणिक्खी कज्जलया कज्जलप्पदा तत्थ । इरिदिदिसाविभागे पुग्वपमाणादिवावीओ ॥ १९६२ चडवावीमज्झपुरेर सोहम्मो भत्तिउवगदे देवे । पेच्छइ अत्थाणिरदे। चामरछत्तादिपरियरिदो ॥ १९६३ सिरिभद्दा सिरिकंता सिरिमहिदा मरुदिसाए सिरिणिलया। पुक्खरणीओ होंति हु तेसिं मज्झम्मि पासादो' ॥ १९६४ तस्सि पासादवरे ईसानिँदो सुहाणि भुंजेदि । बहुछत्तचमरजुत्तो विविहविणोद्रेण कीडते ॥ १९६५ लिणा य णणिर्गुम्मा कुमुदा कुमुदप्पह त्ति वावीभो । ईसाणदिसाभाए तेसुं मज्झम्मि पासादो ॥ १९६६ उसी दिशाविभाग में त्रायस्त्रिंशदेवोंके निरंतर प्रकाशमान मणिकिरणसमूह से सहित तेतीस उत्तम आसन हैं । १९५८ ॥ ३३ ॥ सिंहासन के पश्चिमभागमें महत्तरोंके छह और महत्तरीका एक, इसप्रकार सात आसन स्थित हैं । १९५९ ॥ ७ । सिंहासन के चारों तरफ अंगरक्षक देवोंके विचित्र रूपवाले चौरासी हजार आसन स्थित हैं ॥। १९६० ॥। ८४००० । सौधर्मइन्द्र उस पूर्वभिमुख सिंहासनपर प्रवेश करके ( आरूढ़ होकर ) विविध प्रकारके विनोद से युक्त होता हुआ सेवार्थ आये हुए देवोंकी ओर देखता है | १९६१ ॥ सौमनसवनके भीतर नैऋत्य दिशाविभाग में भृंगा, भृंगनिभा, कज्जला और कज्जलप्रभा, ये चार वापिकायें पूर्व वापिकाओंके समान प्रमाणादिसे संयुक्त है || १९६२ ॥ इन चार वापिकाओं के मध्य में स्थित पुरमें ( भवन में ) चँवर - छत्रादि से वेष्टित सौधर्म इन्द्र भक्तिसे समीप आये हुए व आस्था अर्थात् आदर में निरत देवोंको देखता है ॥ १९६३ ॥ वायव्य दिशा में श्रीभद्रा, श्रीकान्ता, श्रीमहिता और श्रीनिलया, ये चार पुष्करिणी तथा उनके मध्य में प्रासाद है ॥ १९६४ ॥ उस उत्कृष्ट भवनमें बहुत छत्र एवं चँवरोंसे युक्त ईशानेन्द्र विविध प्रकारके विनोद से क्रीडा करता हुआ सुखोंको भोगता है || १९६५ ॥ ईशान दिशाभाग में नलिना, नलिनगुल्मा, कुमुदा और कुमुदप्रभा, ये चार वापियां हैं और उनके मध्य में प्रासाद हैं ॥ १९६६ ॥ १ द ब देवइ . २ द ब भिंगार भिंगणिहिक्खा ३ द व पुरी. ४ द ब अत्थाणिरिदा. ५ द ब पासादा. ६ द ब णलिणगुव्वं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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