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________________ -४. १९५७ ] चउत्थो महाधियारो [ ३९५ पोखरणीण मज्झे सक्कस्स हवे विहारपासादो । पणघणकोसुत्तुंगो तद्दलरुंदो णिरुवमाणो ॥ १९४९ एक कोसं गाढो सो णिलओ विविहकेदुकमणिज्जो । तस्सायामपमाणे उवएसो णत्थि अम्हाणं ॥ १९५० सीहासणमइरम्मं सोहम्मदस्स भवणमज्झम्मि । तस्स य चउसु दिसासु चउपीढा लोयपालाणं ॥ १९५१ सोहाम्मिंदासणदो दक्खिणभायम्मि कणयणिम्मविदं । सिंहासणं विरायदि मणिगणखचिद पडिंदस्स ॥ १९५२ सिंहासणस्स पुरदो अट्ठाणं होति अग्गमहिसीणं । बत्तीससहस्साणि वियाण पवराई पीढाई ॥ १९५३ ३२०००। पवणीसाणदिसासु पासे सीहासणस्स चुलसीदी । लक्खाणि वरपीढा भवंति सामाणियसुराणं ॥ १९५४ ८४०००००। तस्सग्गिदिसाभाए बारसलक्खाणि पढमपरिसाए। पीढाणि होति कंचणरइदाणि रयणखचिदाणिं ॥ १९५५ १२०००००। दक्खिणदिसाविभागे मज्झिमपरिसामराण पीढाणि । कंचणरयणमयाणि चोइसलक्खप्पमाणाणि ॥ १९५६ १४०००००। णइरिदिदिसाविभागे बाहिरपरिसामराण पीढाणि । कंचणरयणमयाणि सोलसलक्खाणि चेटुंति ॥ १९५७ १६०००००। पुष्करिणियोंके बीच में पांचके घन अर्थात् एकसौ पच्चीस कोस ऊंचा और इससे आधे विस्तारवाला सौधर्म इन्द्रका अनुपम विहारप्रासाद है ॥ १९४९ ॥ वह प्रासाद एक कोस गहरा और विविध प्रकारकी ध्वजाओंसे रमणीय है उसकी लंबाईके प्रमाणका उपदेश हमारे पास नहीं है ॥ १९५० ॥ भवनके मध्यमें अतिरमणीय सौधर्म इन्द्रका सिंहासन और इसके चारों ओर चार सिंहासन लोकपालोंके हैं ॥ १९५१ ॥ सौधर्म इन्द्रके आसनसे दक्षिणभागमें सुवर्णसे निर्मित और मणिसमूहसे खचित प्रतीन्द्रका सिंहासन विराजमान है ॥ १९५२ ॥ सिंहासनके आगे आठ अग्रमहिषियोंके सिंहासन होते हैं। इसके अतिरिक्त बत्तीस हजार प्रवर पीठ जानना चाहिये ॥ १९५३ ॥ ३२००० । __ सिंहासनके पास वायव्य और ईशान दिशामें चौरासी लाख सामानिक देवोंके उत्तम आसन हैं ॥ १९५४ ॥ ८४०००००। । उस सिंहासनके अग्निदिशाभागमें सुवर्णसे रचित और रत्नोंसे खचित बारह लाख प्रथम पारिषद देवोंके आसन हैं ॥ १९५५ ॥ १२००००० । दक्षिणदिशाभागमें मध्यम पारिषद देवोंके सुवर्ण एवं रत्नमय चौदह लाखप्रमाण आसन हैं ॥ १९५६ ॥ १४०००००। नैऋत्यदिशाविभागमें बाह्य पारिषद देवोंके सुवर्ण एवं रत्नमय सोलह लाखप्रमाण आसन स्थित हैं ॥ १९५७ ।। १६०००००। १ द ब 'कोसुत्तुंगा तद्दलरुंदा. २ द ब पमाणं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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