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-४, १८८४] चउत्थो महाधियारो
| ३८७ जीहासहस्सेजुगजुदधरणिंदसहस्सकोडिकोडीओ । ताणं ण वण्णणेसु सक्काओ माणुसाण का सत्ती ॥ १८७५) पत्तेकं सवाणं चउसट्ठी देवमिहुणपडिमाओ । वरचामरहत्थाओ सोहंति जिणिंदपडिमाणं ॥ १८७६ ॥ छत्तत्तयादिजुत्ता पडियंकासणसमण्णिदा णिच् । समचउरस्सायारा जयंति जिणणाहपडिमाओ॥ १८७७ खेयरसुररायहि भत्तीए णमियचलणजुगलाओ । बहुविहविभूसिदाओ जिणपडिमाओ णमंसामि ॥ १८७८ ते सम्वे उवयरणा घंटापहुदीओ तह य दिव्वाणि । मंगलदवाणि पुढं जिणिंदपासेसु रेहति ॥ १८७९ भिंगारकलसदप्पणचामरधयवियणछत्तसुपयट्ठा । अट्टत्तरसयसंखा पत्तेकं मंगला तेसुं ॥ १८८० सिरिसुददेवीण तहा' सम्वाहसणक्कुमारजक्खाणं । रूवाणि पत्तेकं पडि वररयणाइरइदाणि ॥ १८८१ देवच्छंदस्स पुरो णाणाविहरयणकुसुममालाओ। फुरिदकिरणकलाओ लंबंताओ' विरायते ॥ १८८२ . बत्तीससहस्साणि कंचणरजदेहि णिम्मिदा विउला । सोहंति पुण्णकलसा खचिदा वररयणणियरेहिं ।। १८८३ चउवीससहस्साणि धूवघडा कणयरजदणिम्मविदा । कप्पूरागुरुचदणपहुदिसमुद्धंतधूवगंधड्ढा ।। १८८४
जब सहस्रों युगलजिह्वाओंसे युक्त धरणेन्द्रोंकी सहस्रों हजार कोडाकोड़ियां भी उन प्रतिमाओंके वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हो सकतीं, तब मनुष्योंकी तो शक्ति ही क्या है ॥ १८७५ ॥
- सब जिनेन्द्रप्रतिमाओंमेंसे प्रत्येक प्रतिमाके समीप हाथमें उत्तम चवरोंको लिये हुए चौंसठ देवयुगलोंकी प्रतिमायें शोभायमान हैं ॥ १८७६ ॥
तीन छत्रादिसे सहित, पत्यकासनसे समन्वित और समचतुरस्र आकारवाली वे जिननाथप्रतिमायें नित्य जयवन्त हैं ॥ १८७७ ॥
___ जिनके चरणयुगलोंको विद्याधर और देवेन्द्र भक्तिसे नमस्कार करते हैं, उन बहुत प्रकारसे विभूषित जिनप्रतिमाओंको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १८७८ ॥
घंटाप्रभृति वे सब उपकरण तथा दिव्य मंगलद्रव्य पृथक् पृथक् जिनेन्द्रप्रतिमाओं के पासमें सुशोभित होते हैं ॥ १८७९ ॥
भंगार, कलश, दर्पण, चँवर, ध्वजा, बीजना, छत्र और सुप्रतिष्ठ, ये आठ मंगलद्रव्य हैं। इनमेंसे प्रत्येक वहां एकसौ आठ होते हैं । १८८० ॥
___प्रत्येक प्रतिमाके प्रति उत्तम रत्नादिकोंसे रचित श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाह्न व सनत्कुमार यक्षोंकी मूर्तियां रहती हैं ॥ १८८१ ॥
देवच्छंदके सन्मुख नाना प्रकारके रत्न और पुष्पोंकी मालायें प्रकाशमान किरणसमूहसे सहित लटकती हुई विराजमान हैं ।। १८८२ ॥
सुवर्ण एवं रजतसे निर्मित और उत्तम रत्नसमूहोंसे खचित बत्तीस हजारप्रमाण विशाल पूर्ण कलश सुशोभित हैं ॥ १८८३ ।।
कर्पूर, अगुरु और चन्दनादिकसे उत्पन्न हुई धूपके गन्धसे व्याप्त और सुवर्ण एवं चांदीसे निर्मित चौबीस हजार धूपघट हैं ॥ १८८४ ॥
. १द ब सहा. २ द ब सव्वाण. ३ द रयदाणिं. ४द पुरिदकिरणवलीओ. ५ द ब अब्भंताओ. ६ दरउदेहि, बरइदेहिं. ७द कणयरजविणि.
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