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________________ ३८६ ] तिलोय पण्णत्ती K वसहीए गब्भगिहे' देवच्छंदो दुजोयणुच्छे हो । इगिजोयणवित्थारो चउजोयणदीहसंजुत्तो ॥ १८६५. जो २ । १ । ४ । सोलसको सुच्छेदं समचउरस्सं तदद्धवित्थारं । लोयविणिच्छयकत्ता देवच्छंदं परूवेई || १८६६ को १६ । ८ । लंबंतकुसुमदामो पारावयमोरकंठवण्णणिहो । मरगयपवालवण्णो कक्केयणईंदणीलमओ ॥ १८६७ चोसटुकमलमालो चामरघंटापयारर मणिजो । गोसीरमलय चंदणकालागरुधूवगंधड्डो ॥ १८६८ भिंगार कलस दप्पणणाणाविधयवडेहिं' सोहिल्लो । देवच्छंदो रम्मो जलंतवररयणदीवजुदो ।। १८६९ अत्तरस संखा जिणवरपासादमज्झभायम्मि । सिंहासणाणि तुंगा' सपायपीढा य फलिमया ॥ १८७० सिंहासणाणै उवरिं जिणपडिमाओ अणाइणिहणाओ । अट्टुत्तरसयसंखा पणसयचात्राणि तुंगाओ ॥ १८७१ भिणिदणील मरगय कुंतलभूवग्गदिण्णसोहाओ । फलिहिंदणीलणिम्मिदधवलासिदणेत्तजुयलाओ || १८७२ वज्जमयदंतपंतीपदाओ पल्लवसरिच्छअधराओ । द्दीरमयवरणद्दाओ पउमारुणपाणिचरणाओ || १८७३ अब्भहियसहस्सप्प माणवंजणसमूहसहिदाभो । बत्तीसलक्खणेहिं जुत्ताओ जिणलपडिमाओ ॥ १८७४ Jain Education International [ ४. १८६५ वसतिका गर्भगृह के भीतर दो योजन ऊंचा, एक योजन विस्तारवाला और चार योजनप्रमाण लम्बाईसे संयुक्त देवच्छंद है || १८६५ ॥ योजन २ । १ । ४ । लोकविनिश्चयके कर्ता देवच्छंद को समचतुष्कोण सोलह कोस ऊंचा और इससे आधे विस्तारसे संयुक्त बतलाते हैं ।। १८६६ ॥ को. १६ । ८ । पाठान्तर । यह रमणीय देवच्छंद लटकती हुई पुष्पमालाओंसे सहित, कबूतर व मोरके कण्ठगत वर्णके सदृश, मरकत व प्रवाल जैसे वर्णसे संयुक्त, कर्केतन एवं इन्द्रनील मणियोंसे निर्मित, चौंसठ कमलमालाओंसे शोभायमान, नाना प्रकारके चँवर व घंटाओंसे रमणीय, गोशीर, मलयचन्दन एवं कालागर धूपके गन्धसे व्याप्त, झारी, कलश, दर्पण व नाना प्रकारकी ध्वजा पताकाओं से सुशोभित और देदीप्यमान उत्तम रत्नदीपकोंसे युक्त है ॥। १८६७-१८६९ ।। जिनेन्द्रप्रासाद के मध्यभागमें पादपीठोंसे सहित स्फटिकमणिमय एकसौ आठ उन्नत सिंहासन हैं ।। १८७० ॥ सिंहासनोंके ऊपर पांचसौ धनुषप्रमाण ऊंची एकसौ आठ अनादिनिधन जिनप्रतिमायें विराजमान हैं ।। १८७१ ॥ ये जिनेन्द्रप्रतिमायें भिन्न इन्द्रनीलमणि व मरकतमणिमय कुंतल तथा भ्रुकुटियोंके अग्रभाग से शोभाको प्रदान करनेवाली, स्फटिकमणि और इन्द्रनीलमणिसे निर्मित धवल व कृष्ण नेत्रयुगलसे सहित, वज्रमय दन्तपंक्तिकी प्रभासे संयुक्त, पल के सदृश अधरोष्ठसे सुशोभित, हीरेसे निर्मित उत्तम नखोंसे विभूषित, कमलके समान लाल हाथ-पैरोंसे विशिष्ट, एक हजार आठ व्यंजन समूह से सहि और बत्तीस लक्षणोंसे युक्त हैं ।। १८७२-१८७४ ॥ १ द ब गन्भगिहो. २ द ब परूवेउ. ३ द व धयवलेहिं. ४ द व तुंगो, ५ द ब सिंहासनाणि. For Private & Personal Use Only पाठान्तरम् । www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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