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________________ -४. १८६४ ] चउत्थो महाधियारो पुण्वावर कोसा पण्णास तत्थ वित्थारो । कोसद्धं अवगाढो अकट्टिमणिहणपरिहीणो || १८५६ को ५० । गा १। २ एसो पुग्वाहिमुह चउजोयण जेट्ठदारउच्छे हो । दोजोयण तब्वासो वाससमाणो पवेसो य ॥ १८५७ ४ । २ । २ । उत्तरदक्खिणभाए खुल्लयदाराणि दोण्णि चेद्वंति । तद्दलपरिमाणाणिं वरतोरणथंभजुत्ताणं ॥ १८५८ २।१।१। (सँखें दुकुंदधवलो मणिकिरणकलप्पणासियतमोघो । जिणवइपासादवरो तिहुवणतिलओ त्ति णामेणं ॥ १८५५) दारसरिच्छुरसेहा वज्जकवाडा विचित्तवित्थिण्णा । जमला तेसुं सच्चे जलमरगयकक्केयणादिजुदा ॥ १८६०-२ रविन्दयकररूवाहिं णाणाविहसालभंजियाहिं जुदा । पणवण्णरयणरइदा थंभा तर्हि विरायंति ।। १८६१ भित्तीओ विविहाओ णिम्मलचर फलिहरयणरइदाओ । चित्तर्हि विचित्तहिं विम्हयजणणेहिं जुत्ताओ ॥ १८६२ थंभाण मज्झभूमी समंतदो पंचवण्णरयणमई । तणुमणणयणाणंदणसंजणणी णिम्मला विरजा ॥ १८६३ बहुविविदाणएहिं मुत्ताहलदामचामरजुदेहिं । वररयणभूषणेहिं संजुत्तो सो जिनिंदपासादो ॥ १८६४ यह अकृत्रिम एवं अविनाशी ( अनादिनिधन ) जिनेन्द्रप्रासाद पूर्व-पश्चिम भागों में विस्तार में पचास योजन और अवगाहमें अर्ध कोसमात्र है ।। १८५६ ॥ को. ५० । अवगाह ३ । यह जिनभवन पूर्वाभिमुख है । इसके ज्येष्ठ द्वारकी उंचाई चार योजन, विस्तार दो योजन और प्रवेश भी विस्तार के समान दो योजनमात्र है ।। १८५७ ॥ ४ । २ । २ । उत्तर-दक्षिण भागमें दो क्षुद्र द्वार स्थित हैं, जो ज्येष्ठ द्वारकी अपेक्षा अर्धभागप्रमाण उंचाई आदि सहित और उत्तम तोरणस्तम्भोंसे युक्त हैं ।। १८५८ ॥ २ । १ । १ । शंख, चन्द्रमा अथवा कुंदपुष्पके समान धवल और मणियोंके किरणकलापसे अंधकारसमूहको नष्ट करनेवाले यह उत्तम जिनेन्द्रप्रासाद ' त्रिभुवनतिलक ' नामसे विख्यात है ||१८५९|| इन द्वारोंमें द्वारोंके समान उंचाईसे सहित और विचित्र एवं विस्तीर्ण सब युगल वज्रकपाट जलकान्त, मरकत और कर्केतनादि मणिविशेषोंसे संयुक्त हैं ।। १८६० ॥ उस जिनेन्द्रप्रासाद में विस्मयजनक रूपवाली नाना प्रकारकी शालभंजिकाओं से युक्त और पांच वर्णके रत्नोंसे रचे गये स्तम्भ विराजमान हैं ।। १८६१ ॥ निर्मल एवं उत्तम स्फटिक रत्नोंसे रची गई विविध प्रकारकी भित्तियां विचित्र और विस्मयजनक चित्रोंसे युक्त हैं ॥ १८६२ ॥ खम्भोंकी मध्यभूमि चारों ओर पांच वर्णके रत्नोंसे निर्मित, शरीर, मन एवं नेत्रोंको आनन्ददायक, निर्मल और धूलिसे रहित है ॥ १८६३ ॥ वह जिनेन्द्रप्रसाद मोतियोंकी माला तथा चामरोंसे युक्त एवं उत्तम रत्नोंसे विभूषित बहुत प्रकार के वितानोंसे संयुक्त है || १८६४ ॥ १. द ब रुवाई २ द तरिसें, बतासे ३ द व चेतेहिं. TP. 49 [ ३८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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