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________________ ३८४ ] तिलोयपण्णत्ती [४. १८४७ पंडुगवणस्स मज्झे चूलियपासम्मि पच्छिमदिसाए । हारिदो पासादो वासप्पहुदीहिं पुव्वं व ॥ १८४७ वरुणो त्ति लोयपालो पासादे तत्थ चेट्टदे णिचं । किंचूणतिपल्लाऊ जलपहणामे पहु विमाणम्मि ॥ १८४८ छल्लक्खा छावट्ठी सहस्सया छस्सयाणि छासट्ठी । परिवारविमाणाई होति जलप्पहविमाणस्स ॥ १८४९ ६६६६६६। वाहणवत्थविभूसणकुसुमप्पहुदीणि हेमवण्णाणि । वरुणस्स होंति कप्पजपियाउ आउटुकोडीओ ॥ १८५० तव्वणमझे चलियपासम्मि य उत्तरे विभायम्मि । पंडुकणामो णिलओ वासप्पहुदीहिं पुवं व ॥ १८५१ तस्सि कुबेरणामा पासादवरम्मि चेट्ठदे देवो। किंचूणतिपल्लाऊ सामी वग्गुप्पहे विमाणम्मि ॥ १८५२ छलक्खा छावट्ठी सहस्सया छस्सयाई छासट्ठी। परिवारविमाणाई वग्गुपहे वरविमाणम्मि ॥ १८५३ ६६६६६६ । वाहणवत्थप्पहुदी धवलो उत्तरदिसाहिणाहस्स । कप्पजइस्थिपियाओ रमणी आउट्टकोडीओ ॥ १८५४ तव्वणमझे चलियपुवदिसाए जिगिंदपासादो । उत्तरदक्खिणदीहो कोससयं पंचहत्तरी उदओ ॥ १८५५ कोस १००। ७५। पाण्डुकवनके मध्यमें चूलिकाके पास पश्चिमदिशामें पूर्वभवनके समान व्यासादिसे सहित हारिद्र नामक प्रासाद है ॥ १८४७ ।। उस प्रासादमें कुछ कम तीन पत्यप्रमाण आयुका धारक और जलप्रभ नामक विमानका प्रभु वरुण नामक लोकपाल नित्य ही रहता है ॥ १८४८ ॥ जलप्रभ विमानके परिवारविमान छह लाख छयासठ हजार छहसौ छ्यासठ संख्याप्रमाण हैं ।। १८४९ ॥ ६६६६६६ । वरुण लोकपालके वाहन, वस्त्र, भूषण और कुसुमादिक सुवर्णके जैसे वर्णवाले होते हैं । तथा इसके कल्पवासिनी प्रियायें साढ़े तीन करोड़ होती हैं ॥ १८५० ॥ उस पाण्डुकवनके मध्यमें चूलिकाके पास उत्तरविभागमें पूर्वोक्त भवनके समान विस्तारादिसे सहित पाण्डुक नामक प्रासाद है ॥ १८५१ ।। उस उत्तम प्रासादमें कुछ कम तीन पत्यप्रमाण आयुका धारक और वल्गुप्रभ विमानका प्रभु कुबेर नामक देव रहता है ॥ १८५२ ॥ वल्गुप्रभ नामक उत्तम विमानके परिवारविमान छह लाख छयासठ हजार छहसौ छयासठ संख्याप्रमाण हैं ॥ १८५३ ॥ ६६६६६६ । उत्तरदिशाके स्वामी उस कुबेरके वाहन-वस्त्रादिक धवल और साढ़े तीन करोड़ कल्पज स्त्रियां प्रियायें होती हैं ॥ १८५४ ॥ उस वनके मध्यमें चूलिकासे पूर्वकी ओर सौ कोसप्रमाण उत्तर-दक्षिणदीर्घ और पचत्तर कोसप्रमाण ऊंचा जिनेन्द्रप्रासाद है ॥ १८५५ ॥ कोस १०० । ७५ । १ द ब पसादवणम्मि. २ दबधवलं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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