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________________ ३६६ ] तिलोय पण्णत्ती [ ४. १७०५ सम्वस्स तस्स परिही इगितीससयाई तह य बासट्ठी । सो पल्लसरिसठाणी कणयमेओ बहैविजयडी ॥ १७०५ एक्कसहस्सं पणसयमेकसहस्वं च सगसया पण्णा । उदओ मुद्देभूमज्झिमवित्थारा तस्स धवलस्स ॥ १७०६ पाठान्तरम् । १००० | ५०० | १००० । ७५० । मूलोवरिभाए सो सेलो वेदिउववणेहिं जुदो । वेदीवणाण रुंदा हिमवंतणग व्व णादव्वा ॥ १७०७ बहुतोरणदारजुदा तब्वणवेदी विचित्तरयणमई । चरियहालियविउला णचंताणेयवयवडालोय ॥ १७०८ तग्गिरिउवरिमभागे बहुमज्झे होदि दिव्वजिणभवणं । बहुतोरणवेदिजुदं पडिमाहिं सुंदराहि संजुत्तं ॥ १७०९ उच्छे पहुदीसुं संपहि अम्हाण णत्थि उवदेसो । तस्स य चउद्दिसासुं पासादा होंति रयणमया ॥ सत्तटुप्पहुदीहिं भूमीहिं भूमिदा विचित्तार्द्दि । धुन्वंतघयवडायो णाणाविहरयणकयसोहा ॥ १७११ बहुपरिवारेहिं जैदो सालीणामेण बेंतरो देभो । दसधणुतुंगो चेट्ठदि पलमिदाऊ महादेद्दो' ॥ १७१२ महाओ उत्तरभागेसुं रोहिदास णाम नदी । बेकोसेहिं अपाविय णाभिगिरिं पच्छिमे वलइ ॥ १७१३ १७१०) उस सत्र पर्वतकी परिधि इकतीससौ बासठ योजनप्रमाण है । यह पर्वत पल्य (कुशूल) के सदृश आकारवाला कनकमय वृत्त विजयार्द्ध है ।। १७०५ ॥ उस धवल पर्वतकी उंचाई, मुखविस्तार, भूविस्तार और मध्यविस्तार क्रमसे एक हजार, पांचसौ, एक हजार और सातसौ पचास योजनप्रमाण है || १७०६ ॥ पाठान्तर । उत्सेध १००० । मुखवि. ५०० । भूवि. १००० । मध्यवि. ७५० | वह पर्वत मूल और उपरिम भागों में वेदी एवं उपवनोंसे संयुक्त है । वेदी और वनों का विस्तार हिमवान् पर्वतके समान ही जानना चाहिये ॥ १७०७ ॥ 1 उस पर्वती वनवेदी बहुत तोरणद्वारोंसे संयुक्त, विचित्र रत्नमयी, मार्ग व अट्टालिकाओंसे विपुल और नाचती हुई अनेक ध्वजा - पताकाओंसे आलोकित है ।। १७०८ ॥ उस पर्वतके ऊपर बहुमध्यभागमें अनेक तोरण व वेदियोंसे युक्त और सुन्दर प्रतिमाओं सहित दिव्य जिनभवन है ।। १७०९ ॥ इस जिनभवनकी उंचाई आदि के विषय में इस समय हमारे पास उपदेश नहीं है । जिन भवन के चारों ओर रत्नमय प्रासाद हैं ।। १७१० ॥ प्रासाद सात-आठ इत्यादि विचित्र भूमियोंसे भूषित, फहराती हुई ध्वजा-पताकाओं से संयुक्त और नाना प्रकारके रत्नोंसे शोभायमान हैं ।। १७११ ॥ वहाँपर दश धनुष ऊंचा, एक पल्यप्रमाण आयुसे सहित और महान् शरीरका धारक शाली नामक व्यन्तरदेव बहुत परिवारसे युक्त होकर रहता है ।। १७९२ ॥ रोहितास्या नामक नदी पद्मद्रहके उत्तरभाग से निकलकर नाभिगिरि पहुंचने से दो कोस पूर्व ही पश्चिमकी ओर मुड़ जाती है ॥ १७१३ ॥ . १ द ब कणयमदी. २ ब बढ ३ द व भूमुह ४ द व णचंताणेरयवडालोया ५ द ब धयवलोया. ६ द ब जुदा. ७ द बतरा ८ द महादेवो. ९ ब पउमदहाउत्तर : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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