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________________ ३६४ ] तिलोय पण्णत्ती [ ४. १६९० एवं महापुराणं परिमाणं ताण होदि कमलेसुं । खुल्लयपुरसंखाणं को सक्कड़ कादुमखिलेणं ॥ १६९० पउमदद्दे पुण्वमुद्दा उत्तरगेहा इति सब्वे वि । ताप्णभिमुद्दा वि सेसा' खुल्लयगेद्दा जहाजोगं ॥ १६९१ कमलकुसुमेसु तेसुं पासादा जेत्तिया समुद्दिहा । तेत्तियमेत्ता होंति हु जिनगेहा विविहरयणमया ॥१६९२ (मिंगारक लसदप्पणबुब्बुदघंटाधयादिसंयुण्णा । जिणवरपासादौ ते णाणाविहतोरणदुवारा ॥ १६९३. "वरचामरभामंडलछत्तत्तय कुसुमवरिसपहुदीहिं । संजुत्ताओ तेसुं जिणवरपडिमाओ राजति ॥ १६९४ पउमहादु उत्तरभागेणं रोहिणामवरसरिया । उग्गच्छइ छावत्तरि जोयणदुसयाइं अदिरित्ता || १६९५ २७६ । ६ । १९ रुंदावगाढतोरणअंतरकूडप्पणालियाठाणा । धारारुंद कुंडेहीवाचलकूडे रुंद पहुदीओ ॥ १६९६ तत्थ य तोरणदारे तोरणथंभा अ तीए सरिदाए । गंगाणइए सरिसा णवरिं वासादिएहि ते विगुणा ॥ १६९७ | हिमवंतं गयं । इसप्रकार कमलोंके ऊपर स्थित उन महानगरोंका प्रमाण ( एक लाख चालीस हजार एक सौ सोलह ) है । इनके अतिरिक्त क्षुद्रपुरोंकी पूर्णरूपसे गिनती करने के लिये कौन समर्थ हो सकता है ? || १६९० ॥ पद्मद्रहमें सब ही उत्तम गृह पूर्वाभिमुख हैं, और शेष क्षुद्रगृह यथायोग्य उनके सन्मुख स्थित हैं ॥ १६९९ ॥ उन कमलपुष्पों पर जितने भवन कहे गये हैं, उतने ही वहां विविध प्रकारके रत्नोंसे निर्मित जिनगृह भी हैं ॥ १६९२ ॥ वे जिनेन्द्रप्रासाद नाना प्रकारके तोरणद्वारोंसे सहित और झारी, कलश, दर्पण, बुबद्, घंटा एवं ध्वजा आदि से परिपूर्ण हैं || १६९३ ॥ उन जिन भवनों में उत्तम चमर, भामण्डल, तीन छत्र और पुष्पवृष्टि आदि से संयुक्त जिनेन्द्रप्रतिमायें विराजमान हैं ॥ १६९४ ॥ पद्मद्रहके उत्तरभाग से रोहितास्या नामक उत्तम नदी निकलकर दोसौ छयत्तर योजनसे कुछ अधिक दूर तक [ पर्वतके ऊपर ] जाती है || १६९५ || २७६६६ । इस नदीका विस्तार, गहराई, तोरणोंका अन्तर, कूट, प्रणालिकास्थान, धाराका विस्तार, कुण्ड, द्वीप, अचल और कूटका विस्तार इत्यादि तथा वहांपर तोरणद्वार में तोरणस्तम्भ इन सबका वर्णन गंगानदी के सदृश ही जानना चाहिये । विशेष यह है कि यहांपर इन सबका विस्तार गंगानदीकी अपेक्षा दूना है ॥ १६९६-१६९७ ॥ हिमवान्पर्वतका कथन समाप्त हुआ । १ द व ताणभिमहाभिसेसा. २ द ब पासादै ३ द ब पउमदहाउ दुत्तर. ४ द ब दारारुंदा कूड. ५ दु व कुंद. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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