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________________ -४. १६८९] चउत्यो महाधियारो .. णइरिदिसाए ताणं अडदालसहस्ससंखपासादा। पउमद्दहमज्झम्मि य सुतुंगतोरणदुवाररमणिज्जा ॥ १६८१ ४८०००। कुंजरतुरयमहारहगोवइगंधवणदासाणं । सत्त यणीया सत्तहि कच्छाहिं तत्थ संजुत्ता ।। १६८२ पढमाणीयपमाणं सरिसं सामाणियाण सेसेसुं। विउणा विउणा संखा छस्सु वणीएसु पत्तेयं ॥ १६८३ कुंजरपहुदितणूहिं देवा विकिरंति विमलसत्तिजुदा । मायालोहविहीणा णिच्चं सेवंति सिरिदेवि ॥ १६८४ सत्ताणीयाण घरी पउमइहपच्छिमप्पएसम्मैि । कमलकुसुमाण उवरि सत्त चिय कणयणिम्मविदा ॥ १६८५ अटुत्तरसयमेत्तं पडिहारा मंतिणो य दूदा य । बहुविहवरपरिवारा उत्तमरूवाई विणयजुत्ताई ॥ १६८६ भट्टत्तरसयसंखा पासादा ताण पउमगब्भेसुं । दिसविदिसविभागठिदा दहमज्झे अधियरमणिज्जा ॥ १६८७ होति पइण्णयपहुदी ताणं चउणं वि* पउमपुप्फेसुं। उच्छिण्णो कालवसा तेसु परिमाणउवएसो ॥ १६८८ कमला अकिट्टिमा ते पुढविमया सुंदरा य इगिलक्खं । चालीससहस्साणिं एक्सयं सोलसेहिं जुदं ॥ १६८९ १४०११६ । नैऋतदिशामें उन देवोंके उन्नत तोरणद्वारोंसे रमणीय अडतालीस हजार भवन पद्मद्रहके मध्यमें स्थित हैं ॥ १६८१ ॥ ४८००० ।। कुंजर, तुरंग, महारथ, बैल, गन्धर्व, नर्तक और दास, इनकी सात सेनायें हैं । इनमेंसे प्रत्येक सात कक्षाओंसे सहित है ॥ १६८२ ॥ । प्रथम अनीकका प्रमाण सामानिकदेवोंके सदृश है। शेष छह सेनाओंमें से प्रत्येकका प्रमाण उत्तरोत्तर दूना दूना है ।। १६८३ ।। - निर्मल शक्तिसे संयुक्त देव हाथी आदिके शरीरोंकी विक्रिया करते और माया एवं लोभसे रहित होकर नित्य ही श्रीदेवीकी सेवा करते हैं ॥ १६८४ ॥ सात अनीक देवोंके सात घर पद्मद्रहके पश्चिम प्रदेशमें कमलकुसुमोंके ऊपर सुवर्णसे निर्मित हैं ॥ १६८५॥ उत्तम रूप व विनयसे संयुक्त और बहुत प्रकारके उत्तम परिवारसे सहित ऐसे एकसौ आठ प्रतीहार, मंत्री एवं दूत हैं ॥ १६८६ ॥ उनके अतिशय रमणीय एकसौ आठ भवन द्रहके मध्यमें कमलोंपर दिशा और विदिशाके विभागों में स्थित हैं ॥ १६८७ ॥ पद्मपुष्पोंपर स्थित जो प्रकीर्णक आदिक देव हैं, उन चारोंके प्रमाणका उपदेश कालवश नष्ट हो गया है ॥ १६८८ ॥ वे सब अकृत्रिम पृथिवीमय सुन्दर कमल एक लाख चालीस हजार एकसौ सोलह हैं ॥ १६८९ ॥ १४०११६ । १ द ब मुहा. २. द ब सुरा. . ३ द ब पच्छिमंपएसंति.. ४ द चउवणावि, * व चउणाविं. ५ दब पउमपुव्वेसु. ६द उच्छण्णो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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