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________________ ३६० ] तिलोय पण्णत्ती [ ४.१६५७ वजिंदणीलमरगयक केयणपरामराय संपुण्णा । जिणभवणेहि सणाद्दा को सक्कद वण्णिदुं सयलं ॥ १६५७ हिमवंतयस्स मज्झे पुढवावरमायदो य पउमदहो । पणसयजोयणरुंदी' तद्गुणायामसोहिल्लो ॥ १६५८ ५०० । १००० । दसजोयणाणि गहिरो चउतोरणवेदिणंदणवणेहिं । सहिदो वियसिभकुसुमेहिं सुहसंचयरयणरचिदेहिं ॥ १६५९ वेसणणामकूडो ईसा होदि पंकयदहस्से । सिरिणिचयणामकूडो सिहिदिसभागम्हि णिद्दिट्ठो ॥ १६६० खुल्लहिमवंतकूडो इरिदिभागम्मि तस्स णिछिट्टो । पच्छिमउत्तरभागे कूडो एरावदो णाम ॥ १६६१ सिरिसंचयकूडो तह भाए पउमद्दहस्स उत्तरए । एदेहिं कूडे हिं हिमवंतो पंचसि हरिणामजुदो ॥ १६६२ उववणवेदीजुत्ता वैतरणयरेहिं होंति रमणिजा । सब्वे कूडा एदे णाणाचिहरयणणिम्मविदा || १६६३ उत्तरदिसाविभागे जलम्मि पउमद्दद्दस्स जिणकूडो । सिरिणिचयं वेरुलियं अंकमयं अच्छरीय रुचगं च ॥ १६६४ सिहउप्पलकूढा पदाहिणा होति तस्स सलिलम्मि । तैडवणवेदीहिं जुदा वैतरणयरेहिं सोहिल्ला ॥ १६६५ उपर्युक्त नगर वज्रमणि, इन्द्रनीलमणि, मरकतमणि, कर्केतन ( रत्न विशेष ) और पद्मराग मणियोंसे परिपूर्ण तथा जिनभवनोंसे सनाथ हैं । इनका पूरा वर्णन करनेके लिये कौन समर्थ हो सकता है ? || १६५७ ॥ हिमवान् पर्वतके मध्य में पूर्व-पश्चिम लंबा, पांचसौ योजन विस्तारसे सहित और इससे दुगुणी अर्थात् एक हजार योजनप्रमाण लंबाईसे शोभायमान पद्म नामक द्रह है ।। १६५८ ॥ विष्कंभ ५०० । आयाम १००० । यह पद्मद्रह दश योजन गहरा तथा चार तोरण, वेदियों नन्दनवनों, और शुभसंचय युक्त रत्नोंसे रचे गये बिकसित फूलोंसे सहित है ॥ १६५९ ॥ इस पंकजद्रहके ईशान कोण में वैश्रमण नामक कूट, और आग्नेय दिशामें श्रीनिचय नामक कूट निर्दिष्ट किया गया है ॥ १६६० ॥ उसके नैऋत्य भागमें क्षुद्रहिमवान् कूट और पश्चिमोत्तरभागमें ऐरावत नामक कूट कहा गया है ।। १६६१ ॥ पद्मद्रहके उत्तर भागमें श्रीसंचय नामक कूट स्थित है । इन पांच कूटोंसे हिमवान् पर्वत ' पंचशिखरी ' इस नाम से संयुक्त है ॥ १६६२ ॥ नाना प्रकार के रत्नोंसे निर्मित ये सब कूट उपवन वेदियोंसे सहित और व्यन्तरोंके नगरों से रमणीय हैं ।। १६६३ ॥ पद्मद्रहके जलमें उत्तरदिशा की ओरसे प्रदक्षिणरूपमें जिनकूट, श्रीनिचय, वैडूर्य, अंकमय, आश्चर्य, रुचक, शिखरी, और उत्पलकूट, ये कूट उसके जलमें तटवेदियों और वन-वेदियोंसे सहित हुए व्यन्तर - नगरोंसे शोभायमान हैं ।। १६६४-१६६५ ॥ होते १ द व रुंदा. Jain Education International २ द ब कप्पयदहस्स. ३ द ब तद. ४ द ब यरेसु. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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