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________________ -४. १६५६ ] चउत्यो महाधियारो [ ३५९ एलातमालवल्लीलवंगकंकोलकदलिपहुदीहिं । णाणातहरयणेहिं उजाणवणा विराजंति ॥ १६४७ कल्हारकमलकंदलणीलुप्पलकुमुदकुसुमसंकण्णा । जिणउज्जाणवणेसं पोक्खरणीवाविवरकूवा॥१६४८ जंदादीअ तिमेहल तिपीढपुन्वाणि धम्मचक्काणि । चउवणमझगयाणि चेदियरुक्खाणि सोहंति ॥ १६४९ सेसेसं कूडेसं वेंतरदेवाण होति पासादा । चउतोरणवेदिजुदा णाणाविहरयणणिम्मविदा ॥ १६५० हेमवदभरहहिमवंतवेसमणणामधेयकूडेसुं । णियकूडणामदेवा सेसे णियकूडणामदेवीओ ॥१६५१ बहुपरिवारहिं जुदा चेटुंते तेसु देवदेवीओ । दसधणुउच्छेहतण सोहम्मिदस्स ते य परिवारा ॥ १६५२ ताणं वरपासादा सकोसइगितीसजोयणारंदौ । दोकोससटिजोयणउदया सोहंति स्यणमया ॥ १६५३ पायारवलहिगोउरधवलामलवेदियाहि परियरिया। देवाण होति जयरा दसप्पमाणेसु कूडसिहरेसुं॥ १६५४ धुव्वंतधयवडाया गोउरदारहिं सोहिदा विउला । वरवज्जकवाडजुदा उववणपोक्खरणिवाविरमणिज्जा ॥ १६५५ कमलोदरवण्णणिहा तुहारससिकिरणहारसंकासा । वियसियचंपयवण्णा णीलुप्पलरत्तकमलवण्णा य ॥ १६५६ वहांके उद्यानवन इलायची, तमालवल्ली ( शाल ), लोंग, कंकोल ( शीतल चीनीका वृक्ष ) और केला, इत्यादि नाना वृक्ष-रत्नोंसे शोभायमान हैं ॥ १६४७ ॥ जिनगृहके उद्यानवनोंमें कल्हार, कमल, कन्दल, नीलकमल और कुमुदके फूलोंसे व्याप्त पुष्करिणी, वापी और उत्तम कूप हैं ॥ १६४८ ॥ चारों वनोंके मध्यमें स्थित तीन मेखलायुक्त नन्दादिक वापिकायें, तीन पीठोंसे सहित धर्मचक्र, और चैत्यवृक्ष शोभायमान हैं ॥ १६४९ ॥ शेष कूटोंपर चार तोरण-वेदियोंसे सहित और नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित व्यन्तर देवोंके भवन हैं ॥ १६५०॥ हैमवत, भरत, हिमवान् और वैश्रवण नामक कूटोंपर अपने अपने कूटोंके नामक देव, तथा शेष कूटोंपर अपने अपने कूटोंके नामकी देवियां रहती हैं ॥ १६५१ ॥ इन कूटोंपर बहुत परिवार और दश धनुषप्रमाण ऊंचे शरीरसे युक्त जो देव-देवियां स्थित हैं, वे सौधर्म इन्द्रके परिवाररूप हैं ॥ १६५२ ॥ इन व्यन्तर देव-देवियोंके रत्नमय भवन विस्तारमें इकबीस योजन एक कोस और उंचाईमें बासठ योजन दो कोसप्रमाण होते हुए शोभायमान हैं ॥ १६५३ ॥ दश कूटोंके शिखरोंपर प्राकार, वलभी ( छज्जा ) गोपुर और धवल निर्मल वेदिकाओंसे व्याप्त देवोंके नगर हैं ॥ १६५४ ॥ ये देवोंके नगर उड़ती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सहित, गोपुरद्वारोंसे शोभित, विशाल, उत्तम वज्रमय कपाटोंसे युक्त और उपवन, पुष्करिणी एवं वापिकाओंसे रमणीय हैं ।। १६५५॥ इन नगरोंमेंसे कितने ही कमलोदरवर्णके सदृश वर्णवाले, कितने ही तुषार, चन्द्रकिरण एवं हारके सदृश, कितने ही विकसित चम्पक जैसे वर्णवाले, और कितने ही नील व रक्त कमलके सदृश वर्णवाले हैं ॥ १६५६ ॥ १ द कयलि', २ द ब वरकुडा, ३ द ब रुंदो ४ द ब णीलुप्पलगत्त'. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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