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________________ - ४. १३९० ] उत्थो महाधियारो [ ३२५ चक्कीण चामराणि जक्खा बत्तीस विक्खिवंति तहा । आउट्टा कोडीओ पत्तेक्कं बंधुकुलमाणं ।। १३८३ ३२ । ३५०००००० | कालमहका लपंडू माणवसंखा य पउमणइसप्पा | पिंगलणाणारयणा णवणिद्दिणो सिरिपुरे जादा ॥ १३८४ कालप्पमुद्दा णाणारयणता ते नईमुद्दे णिहिणो । उपज्जदि इदि केई पुग्वाइरिया परूवेंति ॥ १३८५ पाठान्तरम् । उडुजोग्गदग्वभायणघण्णायुहत्रवत्यहम्माणिं । आभरणरय णणियरा णवणिहिणो देंति' पत्तेयं ॥ १३८६ दक्खिण मुद्दआवत्ता चवीस हवंति धवलवरसंखा । एक्कोडिकोडिअंका हलाणि पुढवी वि छक्खंडा ॥ १३८७ सं २४ । ६ १०००००००००००००० | पु ६ । मेरी पढहा रम्मा बारस पुद्द पुह हवंति चक्कीणं । बारस जोयणमेत्ते देसे सुब्वैतवरसह ॥ १३८८ कोडितियं गोसंखा थालीभो एक्ककोडिमेत्ताभो । चुलसीदी लक्खाइं पत्तेक्कं भद्दवारणरहाणि ॥ १३८९ ३००००००० | १००००००० | ८४०००००। अट्ठारस कोडीओ तुरया चुलसीदिकोडिवरवीरा । खयरा बहुकोडीओ अडसीदिसहस्समेच्छणरणाहा ॥ १३९० १८००००००० | ८४००००००० | ८८००० । चक्रवर्तियोंके चामरोंको बत्तीस यक्ष दुराया करते हैं। तथा प्रत्येकके बन्धुकुलका प्रमाण साढ़े तीन करोड होता है ॥ १३८३ || यक्ष ३२ | बन्धुकुल ३५०००००० । काल, महाकाल, पाण्डु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न, ये नौ निधियां श्रीपुरमें उत्पन्न हुआ करती हैं ॥ १३८४ ॥ कालनिधिको आदि लेकर नानारत्नपर्यंत वे निधियां नदीमुखमें उत्पन्न होती हैं, इसप्रकार भी कितने ही पूर्वाचार्य निरूपण करते हैं ॥ १३८५ ॥ पाठान्तर । इन नौ निधियोंमेंसे प्रत्येक क्रमसे ऋतुके योग्य द्रव्य, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, हर्म्य, आभरण और रत्नसमूहों को दिया करती हैं ॥ १३८६ ॥ चक्रवर्तियोंके चौबीस दक्षिणमुखावर्त धवल व उत्तम शंख, एक कोड़ाकोड़ी हल और छह खण्डरूप पृथिवी होती है ।। १३८७ ॥ शंख २४ । इल १०००००००००००००० । पृथिवी ६ । चक्रवर्तियोंके रमणीय भेरी और पटह पृथक् पृथक् बारह होते हैं, जिनका उत्तम शब्द बारह योजनप्रमाण देशमें सुना जाता है ॥ १३८८ ॥ उनकी गौओकी संख्या तीन करोड़, एक करोड़ थालियां तथा भद्र हाथी एवं रथोंमेंसे प्रत्येक चौरासी लाखप्रमाण होते हैं ।। १३८९ ॥ गाय ३००००००० । थाली १००००००० । हाथी ८४००००० । रथ ८४००००० । इसके अतिरिक्त अठारह करोड घोडे, चौरासी करोड उत्तम वीर, अनेकों करोड विद्याधर और अठासी हजार म्लेच्छ राजा होते हैं ॥ १३९० ॥ तुरग १८००००००० । वीर ८४००००००० | म्लेच्छ नरनाथ ८८००० । १ ददिति. २ द ब वरसद्दं. ३ द ब वहाणि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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