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तिलोयपण्णत्ती
[ ४. १३७५
संखेजसहस्सा पुस्ता पुत्तओ होंति चक्कीणं । गणबद्धदेवणामा बत्तीससहस्स ताण अभिधाणा ॥ १३७५ गण ३२००० ।
तत च महाणिसिया कमसो तिसयाई सहिजुत्ताई। चोहसवररयणाई जीवाजीवप्पभेददुविहांई ॥ १३७६ ३६० । ३६० | १४ |
पवणंजय विजयगिरी भद्दमुद्दो तह य कामउट्ठी य । होति यज्छु सुभद्दा बुद्धिसमुदो ति पत्तेयं ॥ १३७७ तुरएभइत्थिरयणा विजयडुगिरिम्मि होंति चत्तारि । भवसेसजीवरयणा णियणियणयरेसु जम्मंति ॥ १३७८ छत्तासिदंडचक्का काकिणिचिंतामणि त्ति रयणाई | चम्मरयणं च सत्तम इय णिज्जीचाणि रयणाणि ॥ १३७९ आदिमरयणचक्कं श्रायुधसालाय उपपदे तत्तो । तिष्णि वि रयणाइ पुढं सिरिग्गिहे ताण णाम इमे ॥ १३८० सूरम्हभहमुहा पयद्धवेगा सुदरिक्षिणा तुरिमो । चिंताजणणी चूडामणि वजमभो ति पत्तेयं ॥ १३८१ जह जह जोग्गहाणे उप्पण्णा चोइसाई रयणाई । इदि केई आयरिया नियमसरूवं ण मण्णंति ॥ १३८२ [ पाठान्तरम् । ]
चक्रवर्तियों के संख्यात हजार पुत्र -
-पुत्रियां होती हैं और बत्तीस हजार गणबद्ध नामक देव उनके परिचारक ( ? ) होते हैं | १३७५ ॥ ३२००० ।
उनके तनुत्र ( शरीररक्षक ) और महानसिक अर्थात् रसोइये क्रमसे तीनसौ साठ तथा चौदह उत्तम रत्न होते हैं । ये रत्न जीव और अजीवके भेदसे दो प्रकारके हुआ करते हैं ।। १३७६ ॥ तनुत्र ३६० । रसोइया ३६० | रत्न १४ ।
पवनंजय ( अश्व ), विजयगिरि ( गज), भद्रमुख ( गृहपति), कामवृष्टि ( स्थपति ), अयोध्य ( सेनापति ), सुभद्रा (युवति) और बुद्धिसमुद्र (पुरोहित), ये प्रत्येक जीवरत्न हैं ॥ १३७७ ॥ इनमें तुरग, हाथी और स्त्री, ये तीन रत्न विजयार्द्ध पर्वतपर तथा अवशिष्ट चार जीवरत्न अपने अपने नगरों में उत्पन्न होते हैं ।। १३७८ ॥
छत्र, असि, दण्ड, चक्र, काकिणी, चिन्तामणि और चर्म, ये सात रत्न निर्जीव होते हैं ॥ १३७९ ॥
इनमें से आदिके चार रन आयुधशाला में और तीन रत्न श्रीगृहमें उत्पन्न होते है । उन सातों रत्नोंके नाम ये हैं ॥ १३८० ॥
सूर्यप्रभ, भद्रमुख, प्रवृद्धवेग, चौथा सुदर्शन, चिन्ताजननी और चूडामणि, इनमें से प्रत्येक वज्रमय होता है ॥ १३८१ ॥
ये चौदह रत्न यथायोग्य स्थानमें उत्पन्न होते हैं । इसप्रकार कोई कोई आचार्य इनके नियमरूपको नहीं भी मानते हैं ।। १३८२ ॥
[ पाठान्तर ] |
१ द व तत्तं ज २ द जीवप्पभेदद्दु विहाई. ३ द व भद्दमहा.
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४ द ब उपदे.
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