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________________ ३२४ ] तिलोयपण्णत्ती [ ४. १३७५ संखेजसहस्सा पुस्ता पुत्तओ होंति चक्कीणं । गणबद्धदेवणामा बत्तीससहस्स ताण अभिधाणा ॥ १३७५ गण ३२००० । तत च महाणिसिया कमसो तिसयाई सहिजुत्ताई। चोहसवररयणाई जीवाजीवप्पभेददुविहांई ॥ १३७६ ३६० । ३६० | १४ | पवणंजय विजयगिरी भद्दमुद्दो तह य कामउट्ठी य । होति यज्छु सुभद्दा बुद्धिसमुदो ति पत्तेयं ॥ १३७७ तुरएभइत्थिरयणा विजयडुगिरिम्मि होंति चत्तारि । भवसेसजीवरयणा णियणियणयरेसु जम्मंति ॥ १३७८ छत्तासिदंडचक्का काकिणिचिंतामणि त्ति रयणाई | चम्मरयणं च सत्तम इय णिज्जीचाणि रयणाणि ॥ १३७९ आदिमरयणचक्कं श्रायुधसालाय उपपदे तत्तो । तिष्णि वि रयणाइ पुढं सिरिग्गिहे ताण णाम इमे ॥ १३८० सूरम्हभहमुहा पयद्धवेगा सुदरिक्षिणा तुरिमो । चिंताजणणी चूडामणि वजमभो ति पत्तेयं ॥ १३८१ जह जह जोग्गहाणे उप्पण्णा चोइसाई रयणाई । इदि केई आयरिया नियमसरूवं ण मण्णंति ॥ १३८२ [ पाठान्तरम् । ] चक्रवर्तियों के संख्यात हजार पुत्र - -पुत्रियां होती हैं और बत्तीस हजार गणबद्ध नामक देव उनके परिचारक ( ? ) होते हैं | १३७५ ॥ ३२००० । उनके तनुत्र ( शरीररक्षक ) और महानसिक अर्थात् रसोइये क्रमसे तीनसौ साठ तथा चौदह उत्तम रत्न होते हैं । ये रत्न जीव और अजीवके भेदसे दो प्रकारके हुआ करते हैं ।। १३७६ ॥ तनुत्र ३६० । रसोइया ३६० | रत्न १४ । पवनंजय ( अश्व ), विजयगिरि ( गज), भद्रमुख ( गृहपति), कामवृष्टि ( स्थपति ), अयोध्य ( सेनापति ), सुभद्रा (युवति) और बुद्धिसमुद्र (पुरोहित), ये प्रत्येक जीवरत्न हैं ॥ १३७७ ॥ इनमें तुरग, हाथी और स्त्री, ये तीन रत्न विजयार्द्ध पर्वतपर तथा अवशिष्ट चार जीवरत्न अपने अपने नगरों में उत्पन्न होते हैं ।। १३७८ ॥ छत्र, असि, दण्ड, चक्र, काकिणी, चिन्तामणि और चर्म, ये सात रत्न निर्जीव होते हैं ॥ १३७९ ॥ इनमें से आदिके चार रन आयुधशाला में और तीन रत्न श्रीगृहमें उत्पन्न होते है । उन सातों रत्नोंके नाम ये हैं ॥ १३८० ॥ सूर्यप्रभ, भद्रमुख, प्रवृद्धवेग, चौथा सुदर्शन, चिन्ताजननी और चूडामणि, इनमें से प्रत्येक वज्रमय होता है ॥ १३८१ ॥ ये चौदह रत्न यथायोग्य स्थानमें उत्पन्न होते हैं । इसप्रकार कोई कोई आचार्य इनके नियमरूपको नहीं भी मानते हैं ।। १३८२ ॥ [ पाठान्तर ] | १ द व तत्तं ज २ द जीवप्पभेदद्दु विहाई. ३ द व भद्दमहा. Jain Education International For Private & Personal Use Only ४ द ब उपदे. www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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