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________________ -४. १३७४ ] उत्थो महाधियारो [ ३२३ स तीसं दस दस वाससहस्सा सणक्कुमारतं । अड छच्चड पण ति सया कमेण तत्तो य पडतं ॥ १३६८ ६०००० | ३०००० | १०००० | १०००० । ८०० । ६०० । ४०० | ५०० | ३०० | पण भहियं च सयं सयमेकं सोललं पि पत्तेयं । हरिसेणप्पमुहाणं परिमाणं विजयकालस्स ॥ १३६९ १५० । १०० । १६ । । एवं चक्कदराणं विजयकालो समत्तो । अह नियणियणयरेसुं चक्कीण रमंतयाण लीलाए । विभवस्से य लवमेत्तं वोच्छामि जहाणुपुत्रीए ॥ १३७० आदिमहणजुदा सब्वे तवणिजवण्णवरदेहा । सयलसुलक्खणभरिया समचउरस्संगसंठाणौ ॥ १३७१ सव्वाभो मणहराओ भहिणवलावण्णरूवरेहाभो । छण्णउदिसहस्साई पत्तेक्कं होंति जुवदीओ ॥ १३७२ ९६००० । तासुं अजाखंडे बत्तीससहस्सराजकण्णाओ । खेचरराजसुदाओ तेत्तियमेत्ताओ मेच्छधूवाओ ॥ १३७३ ३२००० । ३२००० । ३२००० 1 एक्केक्जुवहरयणं एक्केकाणं हवेदि चक्कीणं । भुंजंति हु तेहि समं संकप्पवसंगदं सोक्खं ॥ १३७४ सनत्कुमार चक्रवर्तीपर्यन्त क्रमसे साठ हजार, तीस हजार, दश हजार, और पुनः दश हजार वर्ष विजयकालका प्रमाण है । इसके आगे पद्म चक्रवर्ती तक वह क्रमसे आठसौ, छहसौ, चारसौ, पांचसौ और तीन सौ वर्ष है । पुनः हरिषेणादिक चक्रवर्तियोंमेंसे प्रत्येकका क्रमसे एकसौ पचास, एकसौ और सोलह वर्ष ही विजयकालका प्रमाण है ।। १३६८-१३६९ ॥ भरत ६००००, सगर ३००००, मघवा १००००, सन. १००००, शांति ८००, कुंथु ६००, अर ४००, सुभौम ५००, पद्म ३००, हरि. १५०, जय. १००, ब्रह्म. १६ । इसप्रकार चक्रधरोंके विजयकालका वर्णन समाप्त हुआ । इसके पश्चात् अपने अपने नगरोंमें लीलासे रमण करते हुए उन चक्रवर्तियोंके त्रिभवका यहां अनुक्रमसे लवमात्र कथन किया जाता है ॥ १३७० ॥ सब चक्रवर्ती आदिके वज्रवृषभनाराचसंहनन से सहित, सुवर्णके समान वर्णवाले उत्तम शरीरके धारक, सम्पूर्ण सुलक्षणोंसे युक्त, और समचतुरस्ररूप शरीर संस्थान से संयुक्त होते हैं ।। १३७१ ॥ इनमें से प्रत्येक चक्रवर्तीके मनको हरण करनेवाली और अभिनव लावण्यरूपरेखा से युक्त ऐसी सब छयानबे हजार युवतियां होती हैं ॥ १३७२ ॥ ९६००० । उनमें से बत्तीस हजार आर्यखण्डकी राजकन्यायें, इतनी ही विद्याधर राजाओं की सुतायें, और इतनी ही म्लेच्छकन्यायें भी होती हैं ।। १३७३ ॥ राजकन्या ३२००० । विद्याधरकन्या ३२००० । म्लेच्छकन्या ३२००० । प्रत्येक चक्रवर्ती के एक एक युबतिरत्न होता है । उनके साथ वे संकल्पित ( यथेच्छ ) सुखको भोगते हैं ॥ १३७४ ॥ १ द ब 'काल समत्ता. २ द ब वीभस्स. Jain Education International ३ द ब समचउरंगरस संठाणा. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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