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________________ ३२२] तिलोयपण्णत्ती [४. १३५९ वेयड्ढउत्तरदिसासंठियणयराण खयररायो य । चक्कीण चलणकमले पणमंति कुणंति दासत्तं ॥ १३५९ इय उत्तरम्मि भरहे भूचरखचरादि साहिय समग्गं । वचंति बलेण जुदा गंगाए जाव वणवेदि ॥ १३६० तब्वेदीए दारे तीए उववणखिदीसु लीलाए । पविसिय बलं समग्गं णिक्कामदि दक्षिणमुहेणं ॥ १३६१ गिरितडवेदीदारं गच्छिय गुहदाररयणसोवाणे । चडिय सडंगबलं तं वच्चदि गइउभयतीरेखें ॥ १३६२ तग्गिरिदारं पविसिय दोतीरेसुंणईए उभयतडे | वश्चदि दोहो जोयणमेत्ते रुंदत्ततीरवीहीणं ।। १३६३ पुव्वं व गुहामझे गंतूर्ण दक्खिणेण दारेणं । णिक्कलिय सडंगबलं गंगावणमझमायादि ॥ १३६४ णइवणवेदीदारे गंतूणं गिरिवणस्स मज्झम्मि । चेटुंते चक्कहरा खंधावारेण परियरिया ॥ १३६५ भाणाए चक्कीणं सेणवई पुग्धमेच्छखंड पि । छहि मासेहिं साहिय खंधावार समल्लियदि ॥ १३६६ तम्गिरिवणवेदीए तोरणदारेण दक्षिणमुहेणं। णिक्कलिय चक्कवट्टी णियणियणयरेसु पविसंति ॥ १३६७ विजया की उत्तरदिशामें स्थित नगरोंके विद्याधर राजा भी चक्रवर्तियोंके चरणकमलोंमें . नमस्कार करते और दासत्वको स्वीकार करते हैं ॥ १३५९ ।। इसप्रकार वे चक्रवर्ती उत्तरभरतमें सम्पूर्ण भूमिगोचरी और विद्याधरोंको वशमें करके सैन्यसे युक्त होते हुए गंगाकी वनवेदी तक जाते हैं ॥ १३६० ॥ उस वेदीके द्वारसे उसकी उपवनभूमियोंमें लीलासे प्रवेश करके समस्त सैन्य दक्षिणमुखसे निकलता है ॥ १३६१ ॥ तत्पश्चात् पर्वतकी तटवेदीके द्वार तक जाकर और फिर गुफाद्वारके रत्नसोपानोपर चढ़कर वह षडंग बल नदीके दोनों तीरोंपरसे जाता है ॥ १३६२ ॥ उस पर्वतके द्वारमेंसे प्रवेश करके वह सैन्य नदीके दोनों ओर दो तीरोंपर दो दो योजन विस्तारवाली तटवीथियोंपरसे जाता है ।। १३६३ ॥ पूर्वके समान ही गुफाके बीचमेंसे जाकर और दक्षिणद्वारसे निकलकर वह षडंग बल . गंगावन के मध्यमें आ पहुंचता है ॥ १३६४ ॥ इसके पश्चात् सैन्यसे परिवारित चक्रवर्ती नदीकी वनवेदीके द्वार से जाकर पर्वतसम्बन्धी वनके मध्यमें ठहर जाते हैं ॥ १३६५ ॥ ___पुनः चक्रवर्तियोंकी आज्ञासे सेनापति छह मासमें पूर्व म्लेच्छखण्डको भी वश करके स्कन्धावारमें आ मिलता है ।। १३६६ ॥ अनन्तर चक्रवर्ती उस पर्वतकी वनवेदीके दक्षिणमुख तोरणद्वारसे निकलकर अपने अपने नगरोंमें प्रवेश करते हैं ।। १३६७ ॥ १ द रायाए. २ [ रुंदुत्त] ३ द ब गंतावण'. ४ द ब छठे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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