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________________ -४. १३५८] चउत्यो महाधियारो [३२१ जेत्तूण मेच्छराए तत्तो सिंधूए तीरमग्गेणं । गंतूण उत्तरमुहा सिंधूदेवि कुणंति वसं ॥ १३४८ पुग्वाहिमुहा तत्तो हिमवंतवणस्स वेदिमग्गेण । हिमवंतकूडपणिहीपरियंत जाव गंतूणं ॥ १३४९ णियणामंकिदइसुणा चक्कहरा विधिदूण साईति । हिमवंतकूडसंठियवेंतरहिमवंतणामसुरं ॥ १३५० मह दक्षिणभाएणं वसहगिरि जाव ताव वञ्चति । तग्गिरितोरणदारं पविसंते णिययणामलिहणटुं॥ १३५१ बहुविजयपसत्थीहिं गयचक्कीणं णिरंतरं भरिदं । वसहगिरि ते सम्वे पदाहिणेणं पुलोवंति॥ १३५२ णियणामलिहणठाणं तिलमत्तं पम्वए' भपाता । गलिदविजयाभिमाणा चक्की चिंताए चेटुंति ॥ १३५३ मंतीणं ममराणं उवरोधवसेण पुग्वचक्कीणं । णामाणि एकठाणे णिण्णासिय दंडरयणेणं ॥ १३५४ लिहणं णियणाम तत्तो गंतूण उत्तरमुहेणं । पाविय गंगाकूड गंगादेविं कुणंति वसं ॥ १३५५ अह दक्षिणभाएणं गंगासरियाए तीरमग्गेणं । गंतूर्ण चेटुंते वेयडवणम्मि चकहरा ॥ १३५६ आणाए चक्कीणं तिमिसगुहाए कवाडजुगलं पि। उग्घाडिय सेणवई पुग्वं पिव मेच्छखंडं पि ॥ १३५७ साहिय तत्तो पविसिय खंधावार पसण्णभत्तमणा । चक्कीण चलणकमले पणमंति कुणंति दासत्तं ॥ १३५८ अनन्तर वे चक्रवर्ती म्लेच्छ राजाओंको जीतकर सिन्धुनदीके तटवर्ती मार्ग से उत्तरकी ओर जाकर सिन्धुदेवीको वशमें करते हैं ॥ १३४८ ॥ इसके पश्चात् पूर्वाभिमुख होते हुए हिमवान् पर्वतसम्बन्धी वनके वेदीमार्गसे हिमवान् कूटके समीप तक जाकर वे चक्रवर्ती अपने नामसे अंकित बाणके द्वारा वेधकर हिमवान् कूटपर स्थित हिमवान् नामक व्यन्तर देवको सिद्ध करते हैं ॥ १३४९-१३५० ॥ ___ अनन्तर वे दक्षिणभागसे वृषभगिरिपर्यन्त जाकर अपना नाम लिखने के लिये उस पर्वतके तोरणद्वारमें प्रवेश करते हैं ॥ १३५१ ॥ वहां जाकर गत चक्रवर्तियोंकी बहुतसी विजयप्रशस्तियोंसे निरन्तर भरे हुए वृषभगिरिको वे सब प्रदक्षिणरूपसे देखते हैं ॥ १३५२ ॥ __पुनः निज नामको लिखनेके लिये पर्वतपर तिलमात्र भी स्थान न पाकर चक्रवर्ती विजयाभिमानसे रहित होकर चिन्तायुक्त खडे रह जाते हैं ॥ १३५३ ॥ __ तब मंत्रियों और देवताओंके उपरोधवश एक स्थानमें पूर्व चक्रवर्तियोंके नामोंको दण्ड रत्नसे नष्ट करके और अपना नाम लिखकर वहांसे उत्तरकी ओर जाते हुए गंगाकूटको पाकर गंगादेवीको वशमें करते हैं । १३५४-१३५५॥ इसके पश्चात् वे चक्रधर गंगानदीके तटवर्ती मार्गसे दक्षिणकी ओर जाकर विजयाई पर्वतके वनमें ठहर जाते हैं ॥ १३५६ ॥ पुनः चक्रवर्तियोंकी आज्ञासे सेनापति तिमिश्रगुफाके दोनों कपाटोंको खोलकर और पूर्व म्लेच्छखण्डको भी वशमें करके वहांसे कटकमें प्रवेश कर प्रसन्न एवं भक्तिसे युक्त चित्तवाले होते हुए चक्रवर्तियोंके चरणकमलोंमें प्रणाम करते एवं दासत्वको प्रगट करते हैं ॥ १३५७-१३५८ ।। १ द ब पुदोवंति. २ द ब लिहणराणं. ३ द ब पुब्बए. TP 41. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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